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नायक-संघ का आचार्य इसे सुशोभित करता है और मुनि रूपी योद्धा उसके पीछे-पीछे चलते हैं। जो कायर हैं, संसार के प्रपंच में पड़े हैं, वे इसकी रक्षा नहीं कर सकते। मुनि रूपी योद्धा उसके स्वरूप को भली-भांति जान सकें, इस उद्देश्य से पूर्वाचार्यों ने अनेक प्रकार की व्याख्याएं रची हैं। प्रश्न होता है कि जब पूवाचार्यों द्वारा विरचित व्याख्याएं विद्यमान हैं तो आपको नवीन व्याख्या करने की क्या आवश्यकता है? इसका समाधान यह है कि यद्यपि वे अनेक श्रेष्ठ गुणों से युक्त हैं, फिर भी बहुत बुद्धिशाली पुरुष ही उन्हें समझ सकते हैं क्योंकि वे संक्षिप्त हैं। उनसे अल्प बुद्धि वाले जिज्ञासुओं को विशिष्ट लाभ पहुंचना संभव नहीं है, अतः मैं प्राचीन टीका और चूर्णी रूपी नाडिका का सार लेकर एक नयी नाडिका तैयार करता हूं। जैसे कमजोर नेत्रों वाला पुरुष ऐनक का आश्रय लेकर देखता है, उसी प्रकार मैं प्राचीन टीका चूर्णी और जीवाभिगम आदि से विवरणों का सार लेकर नवीन विस्तृत और इसीलिए मंद-बुद्धि शिष्यों के लिए उपकारक यह यंत्र - घटिका निर्माण करता हूं।
तात्पर्य यह है कि- इस सूत्र की व्याख्याएं प्राचीनकाल के महान आचार्यों ने की है, वे संक्षिप्त और गंभीर होने के कारण विशेष बुद्धिसम्पन्न पुरुषों का उपकार करने में समर्थ हैं। थोड़ी बुद्धि वाले उन्हें नहीं समझ सकते अतएव मैं जयकुंजर नायक भगवान महावीर की आज्ञा लेकर, गुरुजनों की आज्ञा पाकर इस टीका का आरंभ करता हूं। मैं अपने गुरुजनों से अधिक कुशल नहीं हूं, न उनसे अधिक कौशल प्रदर्शित कर सकता हूं लेकिन शिल्पी के कुल में शिल्पी ही जन्म लेता है । जैसे शिल्पकार पिता का कार्य देखतेदेखते पुत्र भी शिल्पकार बन जाता है, इसी प्रकार मेरे पूर्वाचार्य गुरु सूत्र-रचना में कुशल कारीगर हुए हैं। उन्हीं के कुल में मैंने जन्म-धारण किया है, अतः मैं टीका प्रारंभ करना चाहता हूं । प्रकृत रचना उनके लिए नहीं है जो मुझसे अधिक बुद्धि और ज्ञान के धनी हैं, बल्कि उनके लिए है जो मुझसे न्यून मति वाले हैं।
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान
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