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स्थिति काल पूर्ण न हो जायेगा, तब तक वह कर्म फल नहीं देंगे - सत्ता में विद्यमान रहेंगे। जब यह काल पूर्ण हो जायगा । तब कर्म उदय - आवलिका में आवेंगे। उदय-आवलिका में आये हुए कर्मों के फल को भोगना निर्जरा कहलाता है, क्योंकि फल भोग के पश्चात कर्म खिर जाते हैं। जब तक कर्मों की निर्जरा नहीं होती तभी तक कर्म भोगने पड़ते हैं। और जब तक कर्म भोगने पड़ते हैं तभी तक वेदना है। जब तक कर्म उदय-आवलिका में नहीं आये थे तब तक वेदना नहीं थी और जब कर्म की निर्जरा हो जाती है तब भी उस कर्म की वेदना नहीं होगी। जब कर्म अपनी प्रकृति के अनुसार सुख या दुःख देंगे, वह वेदना काल कहलाएगा। अर्थात् कर्म के फलस्वरूप दुःख या सुख का अनुभव होना वेदना है।
कर्म-वेदना दो प्रकार से होती है - (1) स्थिति के क्षय से और (2) उदीरणा से । यद्यपि वेदना दोनों तरह से होती तथापि जैसे समय पर कर्ज चुकाने में और समय से पहले ही महाजन को बुलाकर कर्ज चुकाने में अन्तर होता है। ऐसा ही अन्तर स्थिति के क्षय होने पर कर्म भोगने में और उदीरणा करके कर्म भोगने में है । यद्यपि दोनों अवस्थाओं में कर्ज चुकाना पड़ता है, लेकिन बुलाकर चुकाने में जिस प्रसन्नता से कर्ज चुकाया जाता है, उस प्रसन्नता से समय पूरा होने पर तकाजा होने पर नहीं चुकाया जाता । यही बात दोनों प्रकार के कर्म भोग में भी है ।
वेदना किस प्रकार भोगी जाती है इत्यादि विचार बहुत लम्बा है और विस्तृत विवेचन की अपेक्षा रखता है। अतएव यहाँ उसका विचार नहीं किया
जाता ।
यद्यपि वेदना के समय असंख्यात हैं, लेकिन एक ही समय में जो वेदना होने लगी उसे वेदना हुई ऐसा मानना चाहिए । गौतम स्वामी का चौथा प्रश्न है:
पहिज्जमाणे पहीणे?
अर्थात- जो गिरता है - पतित होता है, वह गिरा - पतित हुआ ऐसा मानना चाहिए?
आत्मप्रदेशों के साथ जो कर्म एकमेक हो गये हैं, उन्हें गिराना हटाना प्रहाण कहलाता है। आत्म प्रदेशों से कर्म को गिराने में भी असंख्य समय लगते हैं। परन्तु पहले समय में जो कर्म गिर रहे हैं, उनके लिए गिरे यह कहा जा सकता है? पहले प्रश्न में जिन युक्तियों का उल्लेख किया गया है। वही २०० श्री जवाहर किरणावली