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राजा ने फिर सोचा- प्रिये ! तू ने खूब किया। मेरे कर्मों को अच्छा जहर दिया । तू ने मेरी बडी सहायता की। ऐसा न करती तो मुझ में उत्तम भावना न आती । पतिव्रता के नियमों का पालन तू ने ही किया है।
राजा ने प्रमार्जन, प्रतिलेखन तथा आलोचना आदि करके अरिहंत-सिद्ध भगवान की साक्षी से संथारा धारण कर लिया ।
उधर रानी के हृदय में अनेक संकल्प-विकल्प उठने लगे। उसने सोचा ऐसा न हो कि राजा जीवित रह जाए। अगर ऐसा हुआ तो भारी विपदा में पड़ना पड़ेगा। अतएव इस नाटक की पूर्णाहुति करना ही उचित है। इस प्रकार सोचकर वह राजा के पास दौड़ी आई और प्रेम दिखलाती हुई कहने लगी- मैंने सुना आपको कुछ तकलीफ हो गई है?
राजा ने रानी से कुछ भी नहीं कहा । वह चुपचाप अपने आत्म चिन्तन में निमग्न रहा । संसार का असली स्वरूप उसके सामने नाचने लगा। तब रानी ने राजा का सिर अपनी गोद में ले लिया । और अपने सिर के लम्बे-लम्बे बालों से उसका सिर ढँक लिया । इस प्रकार तसल्ली करके चारों और निगाह फेरकर उसने राजा का गला दबोच दिया ।
रानी ने जब अपने पति का राजा का गला दबाया तो वह सोचने लगा रानी मेरा गला नहीं दबा रही है मेरे शेष कर्मों का नाश कर रही है। राजा प्रदेशी ने इस प्रकार कर्मों की उदीरण की । इस उदीरणा के प्रताप से वह सूर्याभ विमान में देव हुआ । उदीरणा ने उसे नरक का अतिथि होने से बचा लिया और स्वर्ग-सुख का अधिकारी बनाया। राजा प्रदेशी ने अल्पकालीन समाधिभाव से ही अपना बेड़ा पार कर लिया। अगर वह दूसरे का हिसाब करने बैठता तो ऐसा न होता ।
तात्पर्य यह है कि राजा प्रदेशी ने उदीरणा के प्रताप से न जाने कितने भवों का पाप क्षय करके आत्मा को हल्का बना लिया। इस प्रकार उदीरणा के द्वारा करोड़ों भवों में भोगने योग्य कर्म क्षण भर में ही नष्ट किये जा सकते हैं। दूसरा प्रश्न इसी उदीरणा के संबंध में है ।
गौतम स्वामी ने तीसरा प्रश्न किया
वेइज्जमाणे वेइए?
अर्थात् जो वेदा जा रहा है, वह वेदा गया ?
आत्मा को सुख - दुःख होना, यही कर्म वेदना है। जब कर्म की स्थिति पूर्ण हो जाती है तब वे उदय - आवलिका में आते हैं। मान लीजिए किसी ने तीस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम की स्थिति वाले कर्म बांधे। जब तक यह श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १६६