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और अन्तिम काल में भी एक अंश ही उत्पन्न होता है, इसलिए उस समय में भी वस्त्र को उत्पन्न होना नहीं माना जा सकेगा। ऐसी स्थिति में वस्त्रोत्पादक की सम्पूर्ण क्रिया और सम्पूर्ण समय व्यर्थ हो जायगा। इस दोष से बचने के लिए यह मानना ही उचित है कि आरम्भ काल में भी अंशतः वस्त्र की उत्पत्ति हुई है।
तात्पर्य यह है कि जैसे एक तार पड़ जाने से ही वस्त्र का उत्पन्न होना मानना युक्ति संगत है, उसी प्रकार कमों की उदय-आवलिका असंख्यात समय वाली होने से पहले समय में जो कर्म उदय-आवलिका में आने के लिए चले हैं, उन कर्मों की अपेक्षा उन्हें 'चला' कहा जाता है। अगर ऐसा न माना जायगा तो जो कर्म उदय आवलिका में आने के लिये चले हैं, उन कर्मों की चलन-क्रिया वृथा हो जायेगी। और यदि प्रथम समय में कर्मों का चलना नहीं माना जायेगा तो फिर दूसरे, तीसरे आदि समयों में भी उनका चलना नहीं माना जा सकेगा। क्योंकि पहले समय में और पिछले समय में कोई अन्तर नहीं है। जैसे पहले समय में कुछ ही कर्म चलते हैं, सब नहीं, उसी प्रकार अन्तिम समय में भी कुछ ही कर्म चलते हैं-सब नहीं। (क्योंकि बहुत से कर्म पहले ही चल चुके हैं और जो थोडे से शेष रहे थे, वही अंतिम समय में चलते हैं) इस प्रकार सब समय समान हैं। किसी में कोई विशेषता नहीं है। अतः प्रथम समय में अगर 'कर्म चले' ऐसा न माना जाय तो फिर किसी भी समय में उनका चलना न माना जा सकेगा। इसलिए जिस प्रकार अंतिम क्रिया से 'कर्म चले' मानते हो, उसी प्रकार प्रथम क्रिया से भी 'कर्म चले' ऐसा मानना चाहिए।
यहाँ यह तर्क किया जा सकता है कि अगर एक तार डालने से वस्त्र उत्पन्न हो जाता है तो फिर दूसरे तार डालने की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर यह है कि अगर अन्तिम तार डालने से ही वस्त्र उत्पन्न हुआ, ऐसा माना जाय तो (अंतिम तार को छोड़कर) पहले के तमाम तार डालने की क्या आवश्यकता है? उन तारों का डालना निष्फल क्यों न जाय? असल बात यह है कि एक तार डालना एक समय की क्रिया हुई और दूसरा तार डालना दूसरे समय की क्रिया हुई। पहले समय में पहला तार डाला है और उससे अंशतः वस्त्र उत्पन्न हुआ है, दूसरे समय में दूसरा तार डालना शेष है। लेकिन जो तार डाला है, उसकी क्रिया और समय निरर्थक तो नहीं गया? उस समय में उस क्रिया से वस्त्र उत्पन्न तो हुआ ही है। १६२ श्री जवाहर किरणावली .