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कर्म की स्थिति परिमित है। चाहे वह अन्तर्मुहूर्त की हो या सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम की हो, लेकिन है परिमित ही। परिमित स्थिति वाले कर्म अगर उदय में नहीं आवेंगे तो उनका परिमितपन मिट जायगा और सारी व्यवस्था भंग हो जायेगी। कर्मस्थिति की मर्यादा है और उस मर्यादा के अनुसार कर्म उदय आवलिका में आते ही हैं। उदय-आवलिका में आने के लिए सभी कर्म एक साथ नहीं चलते हैं प्रत्येक समय में उनका कुछ अंश ही चलता है। प्रथम समय में जो कर्माश चला है उसकी अपेक्षा कर्म को 'चला' न माना जायगा तो प्रथम समय की क्रिया और वह समय व्यर्थ होगा। अतएव चलमान कर्म को चलित मानना ही उचित है। इसके सिवाय जो कर्मदल प्रारंभ में उदय आवलिका के लिए चला है वह अन्त में फिर चलता नहीं है। अतएव इस समय यह कर्मांश चला है और इस समय यह कर्मांश चला है ऐसा मानने से ही कर्मों के चलने का क्रम रह सकता है। एक कर्मदल दूसरे कर्मदल से स्वतंत्र होकर चलता है। अतएव प्रथम समय में जो कर्मदल चला है, उसके आधार पर 'चला' मानना युक्तिसंगत है।
__यह पहला प्रश्न और उसके सम्बन्ध का समाधान हुआ। दूसरा प्रश्न यह है कि
उदीरिज्जमाणे उदीरिए? अर्थात्- जो उदीरा जा रहा है वह उदीर्ण हुआ?
कर्म दो प्रकार से उदय में आते हैं। कोई कर्म अपनी स्थिति परिपक्व होने पर उदय में आता है और कोई कर्म उदीरणा से। किसी विशेष काल में उदय होने योग्य कर्म को जीव अपने अध्यवसाय विशेष से स्थिति का परिपाक होने से पूर्व ही उदयावलिका में खींच लाता है। इस प्रकार नियत समय से पहले ही प्रयत्न विशेष से किसी कर्म का उदय आवलिका में आ जाना 'उदीरणा' है। कर्म की उदीरणा में भी असंख्यात समय लगते हैं। परन्तु पहले समय में उदीरणा होने लगी तो उदीर्ण हुआ कहना चाहिए। ऐसा न कहा जाय तो वही सब गड़बड़ी होगी जिसका उल्लेख 'चलमाणे चलिए' के सम्बन्ध में किया जा चुका है।
कई लोग कहते हैं कि कर्म जिस रूप में बँधे है, उसी रूप में भोगने पड़ते हैं। दूसरी तरह से उनका नाश नहीं हो सकता। लेकिन ऐसा मान लेने पर तप आदि क्रियाएँ व्यर्थ हो जाएँगी। जब तप करने पर भी कर्म उदय में आवेगा और तप न करने पर भी उदय में आवेगा तो तप करने से क्या लाभ है? अतएव यह कथन समीचीन नहीं है कि कर्म का नाश दूसरे प्रकार से नहीं
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १६३ .