________________
कपड़े में पड़ने वाले तार पूरक हैं और कपड़ा पूर्य है। जो सूत एक ही गांठ में बँधा है, उस सबका कपड़ा बनेगा । इसलिए सब धागों में समान शक्ति है। चाहे जिस धागे को पहले डाला जाय, चाहे जिसे पीछे डाला जाय । अगर पहले तार के डालने पर कपड़े को उत्पन्न न कहोगे तो पिछला तार डालने पर कपड़े को उत्पन्न क्यों कहोगे? सभी तार एक ही गांठ के हैं और समान शक्ति वाले हैं, फिर उनमें यह भेद-भाव क्यों किया जाता है? अगर पहले वाले तार को अंत में डाला जाय और अंत में डाले जाने वाले तार को पहले ही डाला दिया जाय तब तो कपड़े को उत्पन्न हुआ मानने में कोई आपत्ति न होगी? अंतिम तार डालने से ही अगर कपड़ा उत्पन्न हुआ कहलाता है तो अंतिम तार को पहले ही डाल देने पर कपड़ा उत्पन्न हुआ ऐसा मानने में आनाकानी नहीं होनी चाहिए। क्योंकि आप अंतिम तार से ही कपड़े का उत्पन्न होना स्वीकार करते हैं। अगर इतने पर भी कपड़े को उत्पन्न हुआ न मानो तो फिर दुराग्रह ही कहलाएगा। इस दुराग्रह के कारण क्रिया में निरर्थकता आएगी। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि पहला, दूसरा और तीसरा तार डालने से भी कपड़ा उत्पन्न हुआ है । अतएव यह मानना उचित है कि पहला धागा डालने से भी वस्त्र किंचित उत्पन्न हुआ है। अगर ऐसा न माना जायगा तो फिर कभी भी वस्त्र उत्पन्न हुआ नहीं कहलाएगा।
यह हुआ तार की अपेक्षा वस्त्र को उत्पन्न माना जाना । काल की अपेक्षा भी यही बात मानना युक्ति संगत है। कपड़ा उत्पन्न करने में जो काल लगता है उसके तीन स्थूल विभाग किये जा सकते हैं- प्रथम प्रारंभकाल, दूसरा मध्यकाल और तीसरा अंतिम काल । अगर कपड़े के प्रांरभकाल में उसे उत्पन्न हुआ न माना जायेगा तो मध्यकाल और अंतिमकाल में उत्पन्न हुआ क्यों माना जायेगा? तीनों काल समान हैं और तीनों कालों में वस्त्र उत्पन्न होता है- किसी एक काल में नहीं । जैसे प्रारंभकाल में कपड़ा बना उसी प्रकार मध्यकाल में भी और उसी प्रकार अंतिमकाल में भी । फिर क्या कारण है जिससे प्रारंभ और मध्य के काल में कपड़े को उत्पन्न हुआ न मानकर अंतिम काल में ही उत्पन्न हुआ माना जाय?
प्रांरभकाल में एक तार डालने पर कपड़े का एक अंश उत्पन्न हुआ है या नहीं? अगर यह कहा जाय कि एक अंश भी उत्पन्न नहीं हुआ तो इस का अर्थ यह हुआ कि इस प्रकार सारा समय समाप्त हो गया और वस्त्र उत्पन्न नहीं हुआ। क्योंकि जैसे प्रारंभ काल में उत्पन्न कपड़े के अंश को अनुत्पन्न माना जाता है, उसी प्रकार मध्यकाल में भी अनुत्पन्न मानना होगा श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १६१