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भगवती सूत्र शास्त्र है। इस शास्त्र में कार्य कारण का व्यभिचार न होने देने की शिक्षा दी गई है । साध्य और साधन में व्यभिचार न आने देने के लिए साध्य और साधन दोनों पर विचार करने की आवश्यकता है। अगर साध्य को भूलकर दूसरे ही कार्य के लिए साधन जुटाते रहे अथवा साधन को भूलकर साध्य दूसरे को ही मानते रहे तो कैसे कार्य होगा? साध्य है खीर, और बना ली तरकारी । यहाँ साध्य का ज्ञान न होने से दूसरे ही कार्य के साधन जुटाये और उन साधनों से खीर की जगह तरकारी बन गई । भले ही तरकारी अच्छी बनी, मगर साध्य वह नहीं थी । साध्य तो खीर थी जो बनी नहीं। इसी प्रकार साध्य बनाया जाय मोक्ष और साधन जुटाए जाएँ संसार के तो मोक्ष कैसे मिलेगा? कारण कार्य में व्यभिचार नहीं होना चाहिए। दोनों एक हो जावें । इस बात की शिक्षा देने वाला शास्त्र कहलाता है । यहाँ कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र साधन हैं और मोक्ष साध्य है। इन साधनों के द्वारा मोक्ष को साधा जाय तो कोई गड़बड़ न होगी । हमारे आत्मा की शक्तियाँ बन्धन में है । उन शक्तियों पर आवरण पड़ा है, उस आवरण को हटाकर आत्मा की शक्तियों को प्रकट कर लेना ही मोक्ष है। आत्मा में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् - चारित्र की शक्ति स्वभावतः विद्यमान है, लेकिन वह दब रही है । रत्नत्रय की इस शक्ति में आत्मा की अन्य सब शक्तियों का समावेश हो जाता है। ज्यों ज्यों इस शक्ति का विकास होता है, मोक्ष समीप से समीपतर होता चला जाता है ।
तात्पर्य यह है कि जो ज्ञान दर्शन और चारित्र की आराधना करेगा, वह मोक्ष की आराधना करेगा और जो मोक्ष की आराधना करेगा वह इन साधनों को अपनायेगा । जैसे खीर को दूध, चावल और शक्कर कहो या दूध, चावल, शक्कर को खीर कहो एक ही बात है। इसी प्रकार सम्यक् - ज्ञान - दर्शन - चारित्र की आराधना कहो या मोक्ष की आराधना कहो, दोनों एक ही बात है ।
सम्यक् ज्ञान - दर्शन - चारित्र मोक्ष के ही साधन हैं यह साधन मोक्ष को ही सिद्ध करेंगे, और किसी कार्य को सिद्ध नहीं करेंगे। मोक्ष को साधने वाला इन तीनों कारणों को ही साधेगा और इन्हीं कारणों से मोक्ष सधेगा । मोक्ष को वही जान सकता है जो इन शक्तियों के बन्धन को जानेगा । जो बन्धन को न जानेगा, वह मोक्ष को क्या समझेगा? जो कैद या परतंत्रता को जानेगा वही स्वतंत्रता चाहेगा। आज जो भारतीय परतंत्रता को जानते हैं वे ही स्वतंत्रता को चाहते हैं । जिन्हें परतंत्रता का ही ज्ञान नहीं है, वे स्वतंत्रता
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १८७