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गड़बड़ी मच जायगी। अतएव प्राकृतिक नियम के अनुसार यही मानना उचित है कि कारण के होने पर ही कार्य होता है। इस नियम से जब मोक्ष साध्य है, तो उसका साधन भी अवश्य होना चाहिए।
मान लीजिए कोई महिला रोटी बनाना चाहती है। रोटी बनाना साध्य है तो उसके लिए साधनों का होना अनिवार्य आवश्यक है। चकला, बेलन, आटा, अग्नि आदि रोटी बनाने के साधनों को सामग्री कहते हैं। यह साधन सामग्री होगी तभी रोटी बनेगी। इसी प्रकार प्रत्येक कार्य में साधन की आवश्यकता है। जैसा मनुष्य का साध्य होगा, वैसा ही उसे पुरुषार्थ भी करना पड़ता है। उसके अनुकूल ही साधन करने पड़ते हैं।
मोक्ष रूप साध्य के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक चारित्र रूप साधनों की आवश्यकता है। जैसे आटा, अग्नि, आदि सामग्री के बिना रोटी नहीं बन सकती, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन आदि सामग्री के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। इससे यह साबित होता है कि मोक्ष रूप साध्य के साधन सम्यक्-दर्शन, सम्यक-ज्ञान और सम्यक् चारित्र हैं।
साध्य के अनुकूल साधन और साधन के अनुसार साध्य होता है। अन्य जाति का कारण अन्यजातीय कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता। अगर किसी को खीर बनानी है तो उसे दूध, शक्कर, चावल का उपयोग करना होगा। इसके बदले अगर कोई नमक-मिर्च इकट्ठा करने बैठ जाये तो खीर नहीं बनेगी। तात्पर्य यह है कि साध्य के अनुकूल ही साधन जुटाने चाहिएं।
साध्य के अनुसार साधन जुटाने के लिये ज्ञान की आवश्यकता है। खीर बनाने वाले को जानकारी होनी चाहिये कि खीर के लिये दूध, शक्कर आदि की आवश्यकता है और शाक बनाने वाले को जानना चाहिए कि उसके लिए नमक-मिर्च का उपयोग किया जाता है। ऐसा ज्ञान न होने से न खीर ही ठीक बन सकती है, और न तरकारी ही। तात्पर्य यह है कि कार्य करने के लिए कर्ता को कारणों का यथावत् ज्ञान होना चाहिए। यथावत् ज्ञान के अभाव में कार्य यथावत् नहीं हो सकता।
यहाँ मोक्ष साध्य है और सम्यगज्ञान आदि उसके साधन हैं। साध्य और साधन के व्यभिचार को हटाकर जो उनका जोड़ मिलाने की शिक्षा दे, वह शास्त्र कहलाता है। अच्छे पुरुष इस बात की शिक्षा चाहते हैं कि साध्य (मोक्ष) और साधन (सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्-चारित्र) समान मिल जावें। इनमें व्यभिचार न हो। इसलिए अच्छे पुरुष शास्त्र श्रवण की इच्छा रखते हैं। १५६ श्री जवाहर किरणावली
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