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श्रीमद्भगवतीसूत्रम् (पंचमांगम् ) द्वितीय भाग :
प्रथम शतक: - प्रथम उद्देशक
मूल- से णूणं भंते! चलमाणे चलिए? उदीरिज्जमाणे उदीरिए? वेइज्जमाणे वेइए? पहिज्जमाणे पहीणे? छिज्जमाणे छिण्णे? भिज्जमाणे भिण्णे? उज्झमाणे दड्ढे ? मिज्जमाणे मडे? निज्जरिज्जमाणे निज्जिण्णे? (3)
संस्कृत - छाया - तद् नूनं भगवन्! चलत् चलितम्? उदीर्यमाणं उदीरितम्? वेद्यमानं वेदितम् ? प्रहीयमाणं प्रहीणम् ? छिद्यमानं छिन्नम् ? मिद्यमानं भिन्नम्? दह्यमानं दग्धम् ? म्रियमाणं मृतम् ? निर्जीर्यमाणं निर्जीर्णम् ? (3)
हे भगवन्! जो चल रहा हो; वह चला; जो उदीरा जा रहा हो; वह उदीरा गया, जो वेदा जा रहा हो; वह वेदा गया, जो नष्ट हो रहा हो वह नष्ट हुआ; जो छिद रहा है वह छिदा, जो भिद रहा है वह भिदा, जो जल रहा है वह जला, जो मर रहा है, वह मरा, जो खिर रहा है, वह खिरा, इस प्रकार कहा जा सकता है? (3)
व्याख्या - गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से उक्त नौ प्रश्न किये। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि गौतम स्वामी ने इन प्रश्नों में पहले चलमाणे चलिए? यह प्रश्न ही क्यों किया? दूसरा प्रश्न पहले क्यों नहीं किया । इस प्रश्न का समाधन यह है ।
पुरुषार्थ चार हैं उनमें मोक्ष पुरुषार्थ मुख्य हैं। जितने भी पुरुषार्थ हैं वह सब मोक्ष के लिए ही होने चाहिए। और कोई काम ऐसे पुरुषार्थ का नहीं है जैसे पुरुषार्थ का काम मोक्ष प्राप्त करने का है । अतएव सब प्राणियों को उचित है कि वे दूसरे काम छोड़ कर मोक्ष - प्राप्ति के काम में लगें ।
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इस प्रकार मोक्ष प्राप्त करना सब कामों में श्रेष्ठ है । मोक्ष प्राप्ति एक कार्य है तो उसका कारण भी अवश्य होना चाहिए, क्योंकि बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता। बिना कारण के कार्य का होना मान लेने से बड़ी
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १८५