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को नहीं समझ सकते । इसी प्रकार जो बन्धन को समझेगा, वही मोक्ष को भी समझेगा ।
वस्तु दो प्रकार से जानी जाती है- स्वपक्ष से और विपक्ष से । वस्तु के स्वरूप का ज्ञान होना स्वपक्ष से जानना है और उसके प्रतिपक्षी विरोधी वस्तु को जानकर और फिर उससे व्यावृत्त करके मूल वस्तु को जानना विपक्ष से जाना है। इसे विधिमुख से और निषेधमुख से जानना भी कहा जा सकता है। प्रकाश को जानने के लिए अन्धकार को जान लेना भी आवश्यक होता है। इसी प्रकार धर्म को जानने के लिए अधर्म को और अधर्म को जानने के लिए धर्म को जान लेना आवश्यक है । मोक्ष का प्रतिपक्ष बन्धन है । बन्धन है, इसी से मोक्ष भी है । बन्धन न होता तो मोक्ष भी न होता । मोक्ष को जानने के लिए बन्धन को जानना पड़ता है।
आत्मा के साथ कर्मों का एकमेक हो जाना बन्ध है । जैसे दूध और पानी आपस में मिलकर एकमेक हो जाते हैं, उसी प्रकार कर्मप्रदेशों का आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक हो जाना बन्धन है। और इस कर्मबन्ध का नाश हो जाना मोक्ष है। मोक्ष के लिए कर्मबन्धन काटना अनिवार्य है ।
मूल बात यह है कि गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से जो नौ प्रश्न किये हैं । उनमें पहले चलमाणे चलिए प्रश्न ही क्यों किया? इस प्रश्न को हल करने से पूर्व हमें यह देखना चाहिए कि कर्म बंध का नाश क्रमशः होता है या एक साथ ?
प्रत्येक कार्य में क्रम देखा जाता है। एक सड़े-गले कपड़े को फाड़ने में भी पहले और पीछे के तार टूटने का क्रम है। कपड़े के तमाम तार एक साथ नहीं टूटते । इस प्रकार संसार में किसी भी कार्य को लीजिए, उसके सम्पन्न होने में क्रम अवश्य दिखलाई पडेगा, जो सूक्ष्म दृष्टि से कार्य के क्रम को समझ लेगा वह गड़बड़ में नहीं पड़ेगा। जो मनुष्य बारीक नजर से किसी कार्य के क्रम को नहीं समझेगा उसका गड़बड़ में पड़ जाना स्वाभाविक है। जैसे अन्यान्य कार्यक्रम क्रम से होते हैं उसी प्रकार कर्मबंध का नाश भी क्रम से होता है। इसमें संदेह के लिए अवकाश नहीं होना चाहिए। अब देखना सिर्फ यही है कि कर्मबंध का नाश किस क्रम से होता है?
गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से 'चलमाणे चलिए' से लगाकर 'णिज्जरिज्जमाणे णिज्जरिए तक जो नौ प्रश्न किये हैं उनमें कर्मबंध के नाश का क्रम सन्निविष्ट है । यह क्रम 'चलमाणे चलिए' से आरंभ होता है । और 'णिज्जरिज्जमाणे णिज्जरिए तक रहता है । इस अंतिम क्रम के पश्चात् १८८ श्री जवाहर किरणावली