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जो मति ज्ञान होता है वह इन्द्रिय और मन से होता है। और इन्द्रिय तथा मन से होने वाले ज्ञान में बिना अवग्रह के ईहा नहीं होती।
सारांश यह है कि पहले 'जायसड्ढे, जायसंसए और जायकोऊहले, यह तीन पद अवग्रह है। उप्पणसड्ढे, उप्पण्णसंसए और उप्पण्णकोऊले यह तीन पद ईहा हैं। संजायसड्ढ़े, संजायसंसए और संजायकोऊहले तथा समुप्पणकोऊहले, यह तीन पद धारणा हैं।
इसके आगे गौतम स्वामी के संबंध में कहा है कि-उठाए उडेएं। अर्थात् गौतम स्वामी उठने के लिए तैयार होकर उठते हैं।
प्रश्न-यहां 'उट्ठाए उढेइ' यह दो पद क्यों दिये गये हैं?
उत्तर-दोनों पद सार्थक हैं। पहले पद से यह सूचित किया है कि गौतम स्वामी उठने के अभिमुख हुए अर्थात् उठने को तैयार हुए। दूसरे पद से यह सूचित किया है कि वे उठ खड़े हुए। अगर दो पद न दिए होते और पहला ही पद होता तो उठने के प्रारम्भ का ज्ञान तो होता परन्तु उठकर खड़े हुए, यह ज्ञान न होता। जैसे 'बोलने के लिए तैयार हुए' इस कथन में यह संदेह रह जाता है कि बोले या नहीं? इसी प्रकार एक पद रखने से यहां भी सन्देह रह जाता।
___शास्त्र में गुरु और शिष्य के बीच में साढ़े तीन हाथ की दूरी रहने का विधान है। इस विधान में अनेक उद्देश्य हैं। गुरु को शरीर फैलाने में दिक्कत नहीं होती और गर्मी आदि भी नहीं लगती। इस कारण शिष्य को गुरु से 3।। हाथ दूर रहना कहा है। गुरु के चरण-स्पर्श आदि किसी कार्य के लिए अवग्रह में जाना हो तो गुरु से आज्ञा लेनी चाहिए। अगर गुरु आज्ञा दें तो जाना चाहिए, अन्यथा नहीं जाना चाहिए, यह नियम है। आज इस नियम के शब्द तो सुधर्मा स्वामी की कृपा से मिलते हैं, लेकिन इसमें प्रवृत्ति कम देखी जाती
__गौतम स्वामी अपने आसन से उठ खड़े हुए और चलकर भगवान् के समीप आये। भगवान् के समीप आकर उन्होंने भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा की।
कई लोग प्रदक्षिणा का अर्थ हाथ जोड़ कर अपने कान के आसपास हाथ घुमाना ही समझते हैं, लेकिन वह प्रदक्षिणा का विकृत किंवा संक्षित रूप है। आसपास चारों ओर चक्कर लगाने का नाम ही प्रदक्षिणा है। प्राचीन काल में इसी प्रकार प्रदक्षिणा की जाती थी।
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १७६