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कहकर श्री गौतम स्वामी की प्रशंसा की है। अतएव बार-बार के इस कथन को पुनरुक्ति दोष नहीं कहा जा सकता। इसका प्रमाण यह है। 'वक्ता हर्षभयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवंस्तथा निन्दन्, यत् पदमसकृद्
ब्रूते तत्पुनरुक्त न दोषाय' अर्थात्-हर्ष या भय आदि किसी प्रबल भाव से विक्षिप्त मन वाला वक्ता, किसी की प्रशंसा या निन्दा करता हुआ अगर एक ही पद को बार-बार बोलता है तो उसमें पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता।
इस कथन के अनुसार शास्त्रकार ने गौतम स्वामी की स्तुति के लिए एक ही अर्थ वाले अनेक पद कहे हैं, फिर भी इस कथन में पुनरुक्ति दोष नहीं
है।
जिन आचार्य के मन्तव्य के अनुसार इन बारह पदों को अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा में विभक्त किया गया है, उसके कथन के आधार पर यह प्रश्न हो सकता है कि अवग्रह आदि का क्या अर्थ है? उस प्रश्न का उत्तर यह
इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाले मति ज्ञान के यह चार भेद हैं। अर्थात् हम जब किसी वस्तु को किसी इन्द्रिय द्वारा या मन द्वारा जानते हैं, तो वह ज्ञान किस क्रम से उत्पन्न होता है, यही क्रम बतलाने के लिए शास्त्रों में चार भेद कहे गये हैं। साधारणतया प्रत्येक मनुष्य समझता है कि मन और इन्द्रियों से एकदम जल्दी ही ज्ञान हो जाता है। वह समझता है मैंने आंख खोली और पहाड़ देख लिया। अर्थात् उसकी समझ के अनुसार इन्द्रिय या मन की क्रिया होते ही ज्ञान हो जाता है, ज्ञान होने में तनिक भी देर नहीं लगती। मगर जिन्होंने आध्यात्मिक विज्ञान का अध्ययन किया है, उन्हें मालूम है कि ऐसा नहीं होता। छोटी से छाटी वस्तु देखने में भी बहुत समय लग जाता है। मगर वह समय अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण हमारी स्थूल कल्पना शक्ति में नहीं आता।
एक बलवान् युवक सर्वथा जीर्ण वस्त्र को लेता है और दोनों ओर खींचकर चीर डालता है। वह समझता है कि इसके चीरने में मुझे तनिक भी देर नहीं लगी। मगर ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि इस बलवान् युवक को कपड़ा फाड़ने में बहुत काल लगा है। कपड़ा सूत के पतले-पतले तारों का बना होता है, जब तक ऊपर का तार न टूटे तब तक नीचे का तार नहीं टूटता। इस प्रकार पहले ऊपर का तार टूटा, फिर नीचे का तार। दोनों तार क्रम से टूटते हैं, इसलिए पहला तार टूटने का काल अलग है और दूसरा तार टूटने का काल
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १७५