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भूषण है। इस समाधान को साक्षी पूर्वक स्पष्ट करने के लिए आचार्य साहित्य शास्त्र का प्रमाण देते है । कि
प्रवृत्तदीपामप्रवृत्तभास्करां प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरीम् । अर्थात्-जिस दीपकों की प्रवृत्ति हुई है, सूर्य की प्रवृत्ति नहीं है, ऐसी चन्द्रमा के प्रकाश वाली रात्रि समझी।
इस कथन में भी कार्यकारणभाव की घटना हुई है । 'प्रवृत्तदीपाम्' कहने से 'अप्रवृत्तभास्करां का बोध हो ही जाता है, क्योंकि सूर्य की प्रवृत्ति होने पर दीपक नहीं जलाये जाते । अतः जब दीपक जलाये गये हैं । तो सूर्य प्रवृत्त नहीं है, यह जानना स्वाभाविक है, फिर भी यहां सूर्य की प्रवृत्ति का अभाव अलग कहा गया है। यह कार्यकारणभाव बतलाने के लिए ही है । कार्य-कारणभाव यह कि सूर्य नहीं है अतः दीपक जलाये गये हैं।
आचार्य कहते है कि जैसे यहां कार्य-कारणभाव प्रदर्शित करने के लिए अलग दो पदों का ग्रहण किया गया है, उसी प्रकार शास्त्र में भी सकार्य-कारणभाव दिखाने के लिए ही 'जायसड्ढे' और 'उप्पणसड्ढे इन दो पदों का अलग प्रयोग किया है। श्रद्धा में प्रवृत्ति होने से यह अवश्य जान गये कि श्रद्धा उत्पन्न हुई लेकिन वाक्यालंकार के लिए जैसे उक्त वाक्य में 'सूर्य नहीं है' यह दुबारा कहा गया है उसी प्रकार यहां श्रद्धा उत्पन्न हुई यह कथन किया गया है
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'जायसड्ढे' और उप्पण्णसड्ढे की ही तरह 'जायसंसए' और उप्पण्णसंसए' तथा 'जायकुऊहले' और उप्पण्णकुऊहले' पदों के विषय में भी समझ लेना चाहिए ।
इन छह पदों के पश्चात् कहा है - संजायसड्ढे, संजायसंसए, संजायकोऊहले और समुप्पण्णसड्ढे, समुप्पण्णसंसए और समुप्पण्णकुऊहले । इस प्रकार छह पद और कहे गये हैं ।
अर्वाचीन ग्रन्थों में और प्राचीन शास्त्रों में शैली सम्बन्धी बहुत अन्तर है। प्राचीन ऋषि पुनरुक्ति का इतना खयाल नहीं रखते थे जितना संसार के कल्याण का ख्याल करते थे । उन्होंने जिस रीति से संसार की भलाई अधिक देखी उसी रीति को अपनाया और उसी के अनुसार कथन किया । यह बात जैन शास्त्रों के लिए ही लागू नहीं होती, वरन् सभी प्राचीन शास्त्रियों के लिए लागू है। गीता में अर्जुन को बोध देने के लिए एक ही बात विभिन्न शब्दों द्वारा दोहराई गई है। एक-सीधे सार्द उदाहरण पर विचार करने से यह बात समझ में आ जायेगी। किसी का लड़का जोखिम लेकर, परदेश जाता हो तो उसे श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १७१