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समय भगवान् के मुखारविन्द से निकले हुए अमृतमय वचन श्रवण करने में कितना आनन्द होगा? ऐसा विचार करके गौतम स्वामी को कौतूहल हुआ । गौतम स्वामी का संशय दोषमय नहीं है, क्योंकि उन्हें अकेला संशय नहीं हुआ, वरन् ! पहले श्रद्धा हुई, फिर संशय हुआ, फिर कौतूहल भी हुआ । अतः उनका संशय आनन्द का विषय है। श्रद्धा पूर्वक की हुई शंका दोषास्पद नही है, वरन् अश्रद्धा के साथ की जाने वाली शंका दोष का कारण होती है। यहां तक जायसड्ढे, जायसंसए और जायकोउहले इन तीनों पदों की व्याख्या की गई। इससे आगे कहा गया है- 'उप्पन्नसड्ढे, उप्पन्नसंसए और उप्पण्णकोउहले।' अर्थात् श्रद्धा उत्पन्न हुई, संशय उत्पन्न हुआ और कौतूहल हुआ ।
यह प्रश्न हो सकता है कि 'जायसड्ढे' और 'उप्पण्णसड्ढे में क्या अन्तर है? वह दो विशेषण अलग-अलग क्यों कहे गये हैं? इसका उत्तर यह है कि श्रद्धा जब उत्पन्न हुई तब वह प्रवत्त भी हुई। जो श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई उसकी प्रवृत्ति भी नहीं हो सकती ।
इस कथन में यह तर्क किया जा सकता है कि श्रद्धा में जब प्रवृत्ति होती है तब यह बात स्वयं प्रतीत हो जाती है कि श्रद्धा उत्पन्न हो ही गई है । फिर प्रवृत्ति और उत्पत्ति को अलग-अलग कहने की क्या आवश्यकता थी ? उदाहरण के लिए एक बालक चल रहा है। चलते हुए उस बालक को देखकर यह तो आप ही समझ में आ जाता है कि बालक उत्पन्न हो चुका है । उत्पन्न न हुआ होता तो चलता ही कैसे ? इसी प्रकार गौतम स्वामी की प्रवृत्ति श्रद्धा में हुई, इसी से यह बात समझ में आ जाती है कि उनमें श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। फिर श्रद्धा की प्रवृत्ति बतलाने के पश्चात् उसकी उत्पत्ति बतलाने की क्या आवश्यकता है?
इस तर्क का उत्तर यह है कि प्रवृत्ति और उत्पत्ति में कार्यकारणभाव प्रदर्शित करने के लिए दोनों पद पृथक्-पृथक् कहे गये हैं। कोई प्रश्न करे कि श्रद्धा में प्रवृत्ति क्यों हुई? तो इसका यह उत्तर होगा कि श्रद्धा उत्पन्न हुई थी?
कार्य-कारण-भाव बतलाने से कथन में संगतता आती है, सुन्दरता आती है और शिष्य की बुद्धि में विशदता आती है। कार्य- -कारण-भाव प्रदर्शित करने से वाक्य आलंकारिक भी बन जाता है।
सादी और अलंकारयुक्त भाषा में अन्तर है। अलंकारमय भाषा उत्तम मानी जाती है, अतएव कार्यकारण भाव दिखलाना भाषा का दूषण नहीं है, १७० श्री जवाहर किरणावली