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अगर न बने तो यहीं आ जाना। दामाद को यहीं बुलाकर दुकान करा दूंगी।' बेटी को ऐसी शिक्षा देने से क्या बहू न समझेगी? वह भी यही सोचेगी कि ननद उस घर की बहू है तो मैं इस घर की बहू हूं। जो बात उसके लिए कही गई है वही मेरे लिए भी है ।
इसी प्रकार सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी को गौतम स्वामी की बात सुना रहे हैं। सुधर्मा स्वामी को शिष्य - परम्परा सुधारनी है, इसी उद्देश्य से वह गौतम स्वामी की विनय आदि की बात सुना रहे हैं, जिससे जम्बू स्वामी समझ लें कि गौतम स्वामी के गुरु भगवान् महावीर हैं और वे भगवान् का इतना विनय करते हैं तो मुझे भी अपने गुरु का इतना ही विनय करना चाहिए । जब गौतम जैसे महान् पुरुष जो तपस्वी हैं, संघ के नायक हैं, अनेक ऋद्धियों के धारक हैं और देवता भी जिन्हें नमस्कार करते है, वे भी अपने गुरु का विनय करते हैं तो हम उनके सामने किस गणना में हैं?
सुधर्मा स्वामी के कथन से जम्बू स्वामी तो समझ ही चुके थे, फिर यह वर्णन शास्त्र में क्यों लिखा गया है? इसे लिपिबद्ध करने का उद्देश्य है - संघ के हित पर दृष्टि रखकर उसकी सुन्दर परम्परा को कायम रखना । यह वर्णन इसलिए किया गया है कि जिस तरह गौतम स्वामी ने भगवान् से और जम्बू स्वामी ने सुधर्मा स्वामी से विनय पूर्वक प्रश्न किये थे उसी प्रकार प्रश्न करना चाहिए ।
श्रावक को अगर अपने गुरु के समक्ष प्रश्न करना हो तो किस प्रकार करना चाहिए? क्या श्रावक लट्ठ की तरह जाकर प्रश्न करे ! अनेक श्रावक वन्दना-नमस्कार किये बिना ही, विनय की परवाह किये बिना ही और उचित अवसर है या नहीं, यह देखे बिना ही प्रश्न करने लगते हैं । अन्य तीर्थी लोग जब तक शिष्यत्व स्वीकार न करें तब तक भले ही विनय न करें, मगर आप तो श्रावक हैं। आपको तो विनय और नम्रता के बिना प्रश्न करना ही न चाहिए। अगर आप विनय के बिना प्रश्न करेंगे और साधु उत्तर भी न देंगे, तो भी यह स्मरण रखना चाहिए कि विनय के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता ।
प्रेम और भक्ति की विद्यमानता में ही उपदेश लाभप्रद हो सकता है। फोटाग्राफर वैसा ही फोटो उतारता है जैसे आप बैठे होते हैं । इसीलिए लोग अच्छे दिखने के उद्देश्य से मांगकर भी गहने-कपड़े पहन लेते हैं । सुना गया है कि कई फोटोग्राफर नकली कड़े-कंठे रख छोड़ते हैं। जब छोटे से काम में भी इतनी ठसक रखते हों तो जहां हृदय में शास्त्र का फोटो लेना है वहां लापरवाही करने से कैसे काम चलेगा? वैद्य से दवा लेनी है तो उसके नियमों श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १६५