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का पालन करना पड़ेगा। वैद्य की दवा कदाचित् इस शरीर के रोग को मिटावेगी, लेकिन शास्त्रश्रवण तो भव - परम्परा के रोग मिटाता है? फिर वैद्य से दवा लेने के समय विनीत आचरण करो और शास्त्रश्रवण के समय अविनय सेवन करो, तो क्या यह उचित कहलाएगा?
खयाल आता है मुझे दिलजान तेरी बातों का । खबर तुझको है नहीं आगे अंधेरी रातों का ।। जोबन तो कल ढ़ल जायगा दरियाव है बरसाई का ।
बोर कोई न खायेगा उस रोज तेरे हाथों का । ।
दिलजान का अर्थ है-दिल से बंधा हुआ। दिलजान कह देना और दिलजान का-सा बर्ताव करना और बात है। दुनिया में धनजान, मकानजान और रोटीजान भी हैं। जो धन दे वह धनजान, जो रोटी वह दे रोटीजान और जो मकान दे वह मकानजान। इस प्रकार कई तरह की मैत्री होती है लेकिन दिलजान का दोस्ताना निराला ही है ।
दिल परमात्मा का घर है परमात्मा जब मिलेगा तब दिल में ही, अगर दिल में न मिला तो फिर कहीं नहीं मिलेगा। जो दिलजान बन जाता है उसे हर घड़ी खौफ रहता है कि कहीं मेरे दिलजान का दिल न दुःख जावे? लोग खुशामद के मारे, अच्छा खाने को मिलने से दिलजान कहते हैं, लेकिन ईश्वरीय विश्वास पर जो दिलजान बनता है वह इसलिए कि दिल परमात्मा का घर है। यह बात भली भांति समझ लेता है कि किसी का दिल दुःखाना ईश्वर को दुःखाना है। इसी का नाम दया या अहिंसा है। दूसरे के दिल को रंज पहुंचाना ईश्वर को रंज पहुंचाना है।
यह आदर्श है। कोई इस आदर्श पर चाहे पहुंच न सके मगर आदर्श यही रहेगा। आदर्श उच्च, महान् और परिपूर्ण होना चाहिए । अगर आदर्श गिरा हुआ होगा तो व्यवहार कैसे अच्छा होगा ?
पूरे सन्त वही हैं जो किसी का दिल नहीं दुःखाते । किसी का दिल दुःख जाय तो वह अपने आपको ईश्वर के सामने अपराधी मानते हैं ।
कहा जा सकता है संतों की बात जुदी है, मगर गृहस्थ के सिर पर सैंकड़ों उत्तरदायित्व हैं । उसे लेन-देन करना पड़ता है और दावा-झगड़ा भी करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में किसी का दिल दुःखाये बिना काम कैसे चल सकता है? इसका उत्तर यह है कि जब आपका दिल ही ऐसा बन जायेगा कि मुझसे किसी का दिल न दुखे, मुझे किसी का दिल नहीं दुःखाना है तो, आपके सामने रगड़े-झगड़े आवेंगे ही नहीं । सिंह और सर्प भी अहिंसावादी १६६ श्री जवाहर किरणावली