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भगवान् महावीर समवरण में विराजमान हैं और गौतम स्वामी उनसे न ज्यादा दूर न ज्यादा पास बैठे हैं। गौतम स्वामी किस आसन से बैठे हैं, यह भी सुधर्मा स्वामी ने बतलाया है। गौतम स्वामी के घुटने ऊपर को उठे हैं और सिर नीचे की ओर किंचित झुका हुआ है। गो दुहने के समय जो आसन होता है उसी आसन में बैठे हुए गौतम स्वामी धन रूपी कोठे में प्रविष्ट हैं।
अनाज अगर सुरक्षित स्थान में नहीं रक्खा जाता तो वह इधर उधर बिखरा रहता है, जिससे खराब होता है और उसका असली गुण भी कम हो जाता है। अतएव रक्षा की दृष्टि से अनाज मिट्टी की कोठियों में भर दिया जाता है। इससे वह बिखरा हुआ नहीं रहता और उसमें जीव जन्तु भी नहीं पड़ने पाते। वह सुरक्षित रहता है, जिससे कुटुम्ब का जीवन सुख से बीतता
है।
लोक व्यवहार के इस दृष्टान्त को ध्यान में रखकर ही गौतम स्वामी के संबंध में यह कहा गया है कि वे ध्यान रूपी कोठे में तल्लीन हुए बैठे हैं। जैसे कोठे में नहीं भरा हुआ अनाज इधर-उधर बिखरा रहता है उसी प्रकार बिना ध्यान के मन और इन्द्रियां इधर-उधर बिखरी रहती हैं, जिससे खराब होकर विपत्ति में पड़ जाती हैं। अतएव मन और इन्द्रियों को खींच कर ध्यान रूपी कोठों में बंद कर दिया जाता है। ऐसा करने से उनकी शक्ति सुरक्षित रहती है।
इन्द्रियों को और मन को एकाग्र करके उनका संगठन करना ध्यान कहलाता है। ध्यान की व्याख्या करते हुए दार्शनिकों ने और योगशास्त्र ने यही बतलाया है कि चित्तवृत्ति का निरोध करना ध्यान है। जैसे बिखरी हुई सूर्य की किरणों से अग्नि उत्पन्न नहीं होती, परन्तु कांच के बीच में रखने से किरणें एकत्र हो जाती हैं और उस कांच के नीचे रुई रखने से आग उत्पन्न हो जाती है। अगर बीच में कांच न हो तो किरणों से जो काम लेना चाहते हैं वह नहीं लिया जा सकता। इसी प्रकार मन और इन्द्रियों को एकत्र करने से आत्म-ज्योति प्रकट होती है। ध्यान रूपी कांच के द्वारा बिखरी हुई इन्द्रिय रूपी किरणें एकत्र हो जाती हैं और आत्म-ज्योति प्रकट होकर अपार और अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है।
मनुष्य जब सोता है तो इन्द्रियों से सोता है मगर मन में जागता रहता है। इन्द्रियां सोती रहती हैं अतः उनके द्वारा निकलने वाली मन की शक्ति रुक जाती है। इस शक्ति के रुकने से स्वप्न आता है और स्वप्न में ऐसी बातें देखी-सुनी जाती हैं, जो पहले देखी-सुनी नहीं हों, न जिनकी कल्पना ही की १६२ श्री जवाहर किरणावली -