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की शरण में गया है, उसे आनन्द-मंगल प्राप्त हुआ है । तप से अशांति और अमंगल दूर हो जाते हैं।
तपस्या से देव सेवा करे, मारे लक्ष्मी पिण आवे रे। ऋद्धि वृद्धि सुख सम्पदा, आवागमन मिटावे रे ।तप०।।
यह संसार तपोमय है। तप से देवता भी कांप उठते हैं और तप के वशवर्ती होकर तपस्वी के चरणों का शरण ग्रहण करते हैं। ऋद्धि-सिद्धि, सुख सम्पत्ति भी तप से ही मिलती है। तीर्थंकर की ऋद्धि समस्त ऋद्धियों में श्रेष्ठ है। वह ऋद्धि भी तपस्वी के लिए दूर नहीं है। भगवान् महावीर ने नन्द राजा के भव में ग्यारह लाख, पच्चीस हजार मास-खमन का तप किया था। इसी तप के प्रभाव में वह महावीर हुए। इस चरम भव में भी भगवान् महावीर ने साढ़े बारह वर्ष का घोर तप किया था।
भगवान् ने नौ बार चौमासी तप किया था-वह भी 120 दिन का चौविहार तप। एक छह मास का तप किया था और एक तेरह बोल युक्त छहमास का अभिग्रह तप किया था। इन अभिग्रहों के पूरा होने का वर्णन किया तो मालूम हुआ कि जैन संघ में कैसी-कैसी महान् शक्तियों ने जन्म लिया था। भगवान् महावीर ने ऐसे कठिन अभिग्रह किये तो देवी चन्दनबाला मिली ही। किसकी प्रशंसा की जाये भगवान् महावीर की या देवी चन्दनबाला की? आज तो लोग यह भी कहने का साहस कर सकते हैं कि धर्म करने से चन्दनबाला पर ऐसे कष्ट आये, मगर चन्दरनबाला ने कष्ट न झेले होते तो महावीर जैसे तपस्वी के पवित्र चरण उसके यहां कैसे पड़ते?
भगवान् महावीर का तप तो पांच मास, पच्चीस दिन तक चला था, लेकिन चन्दनबाला ने तो तेला ही किया था। फिर भी चन्दनबाला के तेले की शक्ति ने भगवान् महावीर को खींच लिया। भगवान् दीर्घतपस्वी थे। पांच मास, पच्चीस दिन तक उपवास करना उनके लिए बहुत बड़ी बात न थी, मगर चन्दनबाला राजकुमारी थीं। राजकन्या होकर बिक जाना, अपने ऊपर आरोप लगने देना, सिर मुंडवाना, प्रहार सहन करना, क्या साधारण बात है ? तिस पर उसके हथकड़ी-बेड़ी डाली गई और भौंयरे में बंद कर दी गई। फिर भी धन्य है चन्दनबाला महासती को, जो मुस्कुराती रहीं और अपना मन मैला न होने दिया।
भगवान् ने अन्यान्य मार्गों के विद्यमान रहने पर भी तप का ही मार्ग ग्रहण किया, अतएव हमें भी यह मार्ग नहीं त्यागना चाहिए। परिस्थिति कैसी भी हो, अगर क्षमा के साथ तप किया जाये तो अवश्य ही कल्याण होगा।
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १५१