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शरीर का था। सोने का सार निकाल कर कसौटी पर घिसने से होने वाली रेखा का वर्ण और भी अधिक सुन्दर होता है। इस प्रकार गौतम स्वामी का अतीव उज्ज्वल गौर वर्ण अतिशय सुहावना था।
___ अथवा-सोना तपाने पर गल जाता है गले हुए सोने के बिन्दु का जो रंग होता है वैसा ही वर्ण गौतम स्वामी के शरीर का था।
यहां तक गौतम स्वामी की शरीर-सम्पत्ति की विशेषता से ही किसी पुरुष की महत्ता नहीं है। मनुष्य की वास्तविक महत्ता उसके सद्गुणों पर निर्भर है। हाड़ से ही लाड़ करने वाले बहिरात्मा कहलाते हैं। अतएव यह देखना चाहिए कि गौतम स्वामी में क्या गुण थे? शास्त्रकार बतलाते हैं कि गौतम स्वमी हीन चारित्र वाले नहीं थे, किन्तु उग्र तप करते थे। उनका तप इतना उग्र है कि कायर पुरुष उसका विचार करके ही कांप उठेगा।
शारीरिक गठन और शारीरिक सौन्दर्य उसी का प्रशस्त है जिसमें तप की मात्रा विद्यमान है। सुन्दरता हुई मगर तपस्या न हुई तो वह सुन्दरता किस काम की? तपहीन सुन्दर शरीर तो आत्मा को और चक्कर में डालने वाला है।
जिसमें तप होता है उसी की महिमा का बखान किया जाता है। गौतम स्वामी घोर तपस्वी थे, इसी कारण साधु, साध्वी, श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध संघ उनका गुणगान करता है।
गुण अरूपी और शरीर रूपी है। निराकार का ध्यान साकार के अवलम्बन से किया जाता है। गौतम स्वामी के गुणों का ध्यान करने के लिए उनका शरीर का ध्यान करना पड़ता है। गौतम स्वामी के शरीर का ध्यान करते हुए ही यह कहा गया है कि वह ऐसे गौर वर्ण और सुन्दर थे कि उनके सामने देवता भी लज्जित हो जाते थे।
ध्यान कई प्रकार से किया जाता है। एक पिण्डस्थ ध्यान है, जिसमें पिण्ड का चिन्तन किया जाता है। रूपस्थ भी एक ध्यान है जिसमें वास्तविक रूप का ध्यान करना पड़ता है।
यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि जब पिण्ड का ध्यान किया जाता है तो फिर भगवान् की मूर्ति बना कर भगवान् का ध्यान करने में क्या हानि है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि अगर मूर्ति से केवल ध्यान का ही काम लिया जाये तो कोई हानि नहीं है, लेकिन यह स्मरण रखना चाहिए कि गौतम स्वामी के शरीर को भी शरीर कहा है, चैतन्य नहीं कहा है। यद्यपि शरीर और चैतन्य साथ हैं एकमेक हैं, फिर भी शरीर चैतन्य न कहकर शरीर ही कहा और शरीर का वर्णन किया, अब अगर कोई शरीर को ही घोर तप आदि कह
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माता
ज्यान १४७