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प्रश्न-सर्प भी समचतुरस्रसंस्थान वाला हो सकता है, मगर पूर्वोक्त समचतुरस्रसंस्थान का लक्षण उसमें घटित नहीं होता। सर्प में जितनी लम्बाई होती है उसके हिसाब से मोटाई नहीं पाई जाती। इसलिए यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जिस योनि में जो जन्मा हो उसके परिमाण के अनुसार जो सुडोल और सुन्दर हो वह समचतुरस्रसंस्थान वाला कहलाता है। इस प्रकार कौन, कितना ऊंचा, लम्बा आदि हो, इसका हिसाब अलग-अलग हो जाता है। इस विषय का विचार शास्त्रों में यथास्थान किया भी गया है।
गौतम स्वामी के शरीर की आकृति का वर्णन किया। आकृति सुन्दर होने पर भी हाड निर्बल हो सकते हैं। मगर गौतम स्वामी की हड्डियां कमजोर नहीं थीं, यह प्रकट करने के लिए शास्त्रकार ने कहा है-गौतम स्वामी वज्रर्षभनाराचसंहनन वाले थे।
ऋषभ का अर्थ पट्टा है और वज्र का अर्थ कीली है। नाराच का अर्थ है दोनों ओर खींचकर बंधा होना। यह तीनों बातें जहां विद्यमान हों उसे वज्र-ऋषभ-नाराचसंहनन कहते हैं। जैसी लकडी में लकडी जोड़ने के लिए पहले लकड़ी की मजबूती देखी जाती है, फिर कीली देखी जाती और फिर पत्ती देखी जाती है।
कहा जा सकता है कि हाड में कीली होने की बात आधुनिक विज्ञान से संगत नहीं है, तब यह क्यों कही गई है? इसका उत्तर यह है कि शास्त्रकारों ने कहा है कि यह सब उपमा-कथन है। पट्टा, कीली और बन्धन होने से मजबूती आ जाती है और मजबूती को सूचित करना यहां शास्त्रकार का प्रयोजन है। साराशं यह है कि गौतम स्वामी का शरीर हाड़ों की दृष्टि से भी सदृढ़ और सबल है। जिस का शरीर बलवान होता है उसकी आत्मा भी प्रायः बलवान होती है।
आकृति की सुन्दरता और अस्थियों की सुदृढ़ता होने पर भी शरीर का वर्ण निन्दनीय हो सकता है। पर गौतम स्वामी के विषय में यह बात नहीं थी। यह स्पष्ट करने के लिए उन्हें 'कनक पुलकनिकषपक्ष्मगौर' विशेषण लगाया गया है। कनक का अर्थ है सोना। सोने के टुकड़े को काट कर कसौटी पर घिसने से जो उज्ज्वल रेखा बनती है, उस रेखा के समान सुन्दर गौतम स्वामी के शरीर का वर्ण था अथवा पद्म-कमल के केसर जैसे पीतवर्ण होते हैं, वैसा ही गौर वर्ण गौतम स्वामी का था।
वृद्ध आचार्यों का यह भी कथन है कि सोने का सार निकाल कर कसौटी पर कसने से जैसी स्वर्ण रेखा बनती है, वही वर्ण गौतम स्वामी के १४६ श्री जवाहर किरणावली