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सामुद्रिक शास्त्र बतलाता है कि जिसकी आकृति अच्छी होगी उसमें गुण भी अच्छे होंगे। इस कथन के अनुसार ही गौतम स्वामी के शरीर का परिचय दिया गया है
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गौतम स्वामी का शरीर सात हाथ ऊंचा था। यों तो सभी मनुष्य अपने-अपने हाथ से 3 ।। हाथ के होते हैं मगर यहां ऐसा नहीं समझना चाहिए। जैन शास्त्र में नापने के परिमाणों का बहुत स्पष्ट वर्णन दिया गया है । अंगुल तीन प्रकार के होते हैं - (1) प्रमाणांगुल (2) आत्मांगुल और (3) उत्सेघांगुल । जो वस्तु शाश्वत है अर्थात् जिसका नाश नहीं है वह प्रमाणांगुल से नापी जाती है। ऐसी वस्तु का जहां परिमाण बतलाया गया हो वहां प्रमाणंगुल से ही समझना चाहिए। आत्मांगुल से तत्कालीन नगर आदि का परिमाण बतलाया जाता है। इस पांचवें आरे को साढ़े दस हजार वर्ष बीतने पर उस समय के लोगों के जो अंगुल होंगे, उन्हें उत्सेघांगुल कहते हैं । गौतम स्वामी का शरीर उत्सेघांगुल से सात हाथ का था । इस प्रकार यद्यपि गौतम स्वामी के हाथ से उनका शरीर साढ़े तीन हाथ ही था । परन्तु पांचवें आरे के साढ़े दस हजार वर्ष बीत जाने पर यह साढ़े तीन हाथ ही सात हाथ के बराबर होंगे। इस बात को दृष्टि में रखकर ही गौतम स्वामी का शरीर सात हाथ लम्बा बतलाया गया है। गौतम स्वामी आकार में सुडौल और सुगठित थे । शरीर के मुख्य दो भाग माने जाते हैं। एक भाग नाभि के ऊपर का और दूसरा भाग नाभि के नीचे का । जिस मनुष्य के सम्पूर्ण अवयव अच्छे हों, उनमें किसी प्रकार की न्यूनता न हो - प्रमाणोपेत हों, उसे समचतुरस्रसंस्थानवान् कहते हैं।
अथवा - किसी एक अंग को दृष्टि में रखकर अन्यान्य अंगों का तदनुसार जो परिमाण है अर्थात् आंख इतनी बडी है तो कान इतना बड़ा होना चाहिए, कान इतना बडा है तो ललाट या नाक इतनी बड़ी होनी चाहिए, इस प्रकार के परस्पर सापेक्ष परिमाण के अनुसार जो आकृति हो वह समचतुरस्रसंस्थान कहलाती है।
अथवा कोई मनुष्य समतल भूमि पर पालथी मार कर बैठ जावें उसके बीच में से एक डोरी निकाल कर ललाट तक नापे। ललाट तक नापी हुई रस्सी से दोनों घुटनों के अन्तर को, तथा दाहिने कंधे और बायें घुटने के अन्तर को और बांयें कंधे तथा दाहिने घुटने के अन्तर को नापे। अगर चारों जगह का नाप बराबर हो तो समचतुरस्रसंस्थान समझना चाहिए ।
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १४५