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हो तो उस समय प्रश्न करना उचित नहीं है। ऐसे समय प्रश्न करने से उत्तर भी यथोचित नहीं मिल पाता है। अतएव किये जाते हुए कार्य से निवृत्त होने पर प्रश्न पूछना चाहिए।
श्री गौतम स्वामी ने, जो भगवान् के प्रथम और प्रधान शिष्य थे, यह सूत्र भगवान् से श्रवण किया और धारण किया। इस कथन से यह सूचित किया गया है कि गौतम स्वामी संघ के नायक या अग्रेसर थे। उनका नाम इन्द्रभूति था। यह उनके माता-पिता का दिया हुआ नाम था।
नाम के बिना लोक-व्यवहार नहीं चलता। किसी से रुपया वसूल करने के लिए न्यायालय में दावा करना है तो सर्वप्रथम नाम बतलाना होगा। इसी प्रकार खाने-पीने, आने-जाने आदि के सम्बन्ध में, किसी की कोई बात कहनी है तब भी नाम बताये बिना काम नहीं चलता। जब छोटे कार्य में भी नाम की आवश्यकता है तो जो मनुष्य बड़ा कार्य करने वाला है, उसका पता बिना नाम के कैसे चल सकता है? इसी उद्देश्य से यहां नाम का उल्लेख किया गया है-उनका नाम इन्द्रभूति था, जो माता-पिता का दिया हुआ नाम है।
ज्येष्ठ अन्तेवासी कहने से यह भी समझा जा सकता है कि कोई बड़ा श्रावक होगा, क्योंकि भगवान् का शिष्य श्रावक भी कहला सकता है और साधु भी कहला सकता है। ऐसी स्थिति में इन्द्रभूति श्रावक थे या साधु, यह स्पष्ट करने के लिए उन्हें 'अनागार' विशेषण लगाया गया है। अनागार का अर्थ है-घर रहित जिसके घर न हो अर्थात् साधु। इस विशेषण से यह स्पष्ट हो गया कि इन्द्रभूति श्रावक नहीं, साधु थे।
संसार में एक नाम के अनेक व्यक्ति होते हैं, अतएव जब तक गोत्र न बतलाया तब तक किसी व्यक्ति विशेष को समझने में भ्रम हो सकता है। इस प्रकार का भ्रम न हो, उस उद्देश्य से इन्द्रभूति अनागार का गोत्र गौतम था। वे अपने गोत्र से प्रसिद्ध थे। जैसे आजकल 'मोहनदास करमचन्द' कहने से कई लोग चक्कर में पड़ जाएंगे मगर 'गांधीजी' कहने से कई लोग शीघ्र ही उन्हें पहचान जाऐंगे। जैसे गांधीजी अपने गोत्र से प्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार इन्द्रभूतिजी भी अपने गौतम गोत्र से ही प्रसिद्ध थे। अर्थात् इन्द्रभूति कहने से तो समझने में किसी को अड़चन भी हो सकती थी किन्तु 'गौतम स्वामी' कह देने से सब समझ जाते थे।
_इस प्रकार गौतम स्वामी के नाम-गोत्र का परिचय देने के पश्चात् अब उनके शरीर का परिचय दिया जाता है।
यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति। १४४ श्री जवाहर किरणावली
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