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उत्तर-पदार्थों को अलोक में न जाने देने वाली शक्ति धर्मास्तिकाय है। जैसे जहाज और मछली को यद्यपि पानी नहीं चलाता किन्तु पानी के बिना उनका चलना संभव भी नहीं है। इसी प्रकार धर्मास्तिकाय किसी पदार्थ को प्रेरित करके गति नहीं कराता, फिर भी धर्मास्तिकाय के बिना जीव और पुद्गल की गति नहीं हो सकती। धर्मास्तिकाय जल के समान है। जहां धर्मास्तिकाय रूपी जल भरा है वहीं जीव और पुद्गल जाते हैं। जहाँ धर्मास्तिकाय नहीं है वहां उनका गमन होना असंभव है। इस प्रकार लोक के पदार्थों को अलोक में न जाने देने का निमित्त धर्मास्तिकाय है।
प्रश्न-लोक चौदह राजू प्रमाण ही क्यों हैं?
उत्तर-प्रकृति से ही लोक इतना बड़ा है। अगर किसी ने लोक का निर्माण किया होता तो कहा जा सकता था कि उसने इतना बड़ा ही क्यों बनाया ? और बड़ा या छोटा क्यों नहीं बनाया? लोक तो प्राकृतिक ही अनादि काल से इतना बड़ा है। उसके विषय में क्यों और कैसे को अवकाश नहीं है। अग्नि उष्ण क्यों है? जल शीतल क्यों है? इन प्रश्नों का उत्तर यही है कि
स्वभावोऽतर्कगोचर :। अर्थात्-स्वभाव में किसी की तर्क नहीं चलती।
इसी प्रकार लोक का पूर्वोक्त परिणाम स्वाभाविक है। उसमें तर्क-वितर्क नहीं किया जा सकता। लोक का जो स्वाभाविक परिणाम है उसे शास्त्रकारों ने बतला दिया है।
धर्मास्तिकाय पदार्थ जैन शास्त्र के सिवाय और कहीं नहीं है। खोज तो बहुतों ने की, मगर केवलज्ञानी के सिवाय इस पदार्थ को कोई न बता सका। लोक अलोक की कल्पना बहुतों ने की है, लेकिन लोक अलोक के विभाग का वास्तविक कारण जैन शास्त्र के अतिरिक्त और कोई न बतला सका। यही परिपूर्ण ज्ञान का परिचायक है।
भगवान् यही उपदेश दे रहें हैं कि-'हे जगत् के जीवों! लोक भी है और अलोक भी है इस प्रकार उपदेश देकर भगवान् ने लोक-अलोक का अस्तित्व बता दिया मगर हमें अपने कर्तव्य का भी विचार करना चाहिए।
मानव डर रे। मानव डर रे चौरासी में घर है रे, मानव डर रे।
तू तो जाणे छे यो घर म्हारो रे,
प्राणी थारे न चलसी लारो रे, थाने बाल ने करसी छारो रे, मानव डर रे।।
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १३६