________________
प्रश्न-जो केवलज्ञान से देखा जाये वह लोक है, ऐसा अर्थ मानने पर अलोक भी लोक कहलाएगा, क्योंकि केवल-ज्ञान द्वारा अलोक भी देखा जाता है?
उत्तर-यद्यपि केवलज्ञानी लोक और अलोक-दोनों को ही देखते हैं फिर भी सिर्फ देखने मात्र से ही अलोक, लोक नहीं हो सकता। केवली भगवान् और जिस आकाश-विभाग को पंचास्तिकायमय देखते हैं उस प्रदेश की संज्ञा लोक है जिस आकाश-विभाग को पंचास्तिकाय से शून्य शुद्ध आकाश रूप में देखते हैं उसकी संज्ञा अलोक है। इस प्रकार लोक और अलोक का विभाग होने से किसी प्रकार की गडबडी नहीं होती। __अलोक का अर्थ 'न देखा जाना' है। मगर यह 'न देखा जाना' ज्ञान की न्यूनता का परिचायक नहीं है। जब कोई वस्तु विद्यमान हो मगर देखी न जाये तो दृष्टि की न्यूनता समझी जायेगी। जहां वस्तु न हो वहां अगर वह नहीं दिखाई देती तो उसमें दृष्टि सम्बन्धी कोई दोष नहीं माना जा सकता। मान लीजिए एक जगह जल है और दूसरी जगह स्थल है। स्थल की जगह अगर कोई जल के विषय में पूछे तो यही कहा जायेगा कि यहां जल नहीं है। वास्तव में वहां जल है ही नहीं तो दिखाई कैसे देगा? इस प्रकार भगवान् के केवलज्ञान में किसी प्रकार की न्यूनता नहीं है, लेकिन जहां उन्होंने पांच अस्तिकाय-लोक दिखाई दिया उसे अलोक कहा। वास्तव में वहां एक ही अस्तिकाय है, शेष चार अस्तिकाय हैं ही नहीं तो दीखते कहां से?
प्रश्न-अलोक लोक में क्यों नहीं मिल जाता? समुद्र में मर्यादा है इसलिए वह स्थल से नहीं मिलता। लेकिन लोक-अलोक के बीच में क्या कोई दीवार है जो अलोक को लोक के साथ नहीं मिलने देती? जीव नरक से निकल कर सिद्धशिला तक चौदह राजू लोक तक जाता है, फिर क्या कारण है कि लोक के जीव अलोक में नहीं जाते?
उत्तर-हम जब किसी वस्तु के बीच का अंग देखते हैं तो यह समझ लेते हैं कि इसका आदि और अन्त भी कहीं अवश्य होगा। इसी प्रकार स्थूल लोक हम मध्य में देखते हैं तो उसकी आदि और अंत भी कहीं होगा ही। जब आदि और अंत हैं तो सीमा हो ही गई। इसके अतिरिक्त पदार्थ जहां के तहां बने रहेंगे तभी लोक और अलोक का नाम रहेगा। अगर लोक के पदार्थ अलोक में गये तो लोक और अलोक नाम रहेगा ही क्यों ? ऐसी स्थिति में तो लोक-अलोक के पृथक्-पृथक् नाम ही मिट जायेंगे।
प्रश्न-लोक के पदार्थों को अलोक में न जाने देने वाली शक्ति क्या है? पदार्थों को अलोक में जाने देने से कौन रोकता है ? १३८ श्री जवाहर किरणावली