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ही है। ऐसा कहना ढोंगियों का काम है। इसी कारण शास्त्रकारों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भगवान् ने उस बाग में ठहरने की आज्ञा ली और तप-संयम में विचरने लगे।
जब भगवान् स्वयं एक तिनका भी बिना मांगे नहीं लेते थे-एक तिनके को भी अपना नहीं मानते थे, तो मुनियों को सोचना चाहिए कि वे भी बिना याचना के कोई वस्तु कैसे ग्रहण कर सकते हैं?
जब भगवान् राजगृह के गुणशील नामक उद्यान में पधारे, तब भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक जाति के देवगण भगवान् को वन्दना करने के लिए किस प्रकार आये, कैसे बैठे, इत्यादि बातों का वर्णन उववाई सूत्र में विस्तार से पाया जाता है।
भगवान् के पधारने का समाचार राजगृह नगर में पहुंचा। जहां दो पंथ, तीन पंथ और चार पंथ मिलते थे, वहां बहुत से लोग एकत्रित होकर आपस में बात करने लगे-देवानुप्रिय! श्रमण भगवान् महावीर यावत् सम्पूर्ण तीर्थंकर गुणों से विराजमान अपने नगर के गुणशील उद्यान में, समर्थ होने पर भी आज्ञा मांग कर तप-संयम में विचरते हैं तथा रूप अरिहंत भगवान् के नाम और गुणों के स्मरण का फल भी अपार है, तो भगवान् के सन्मुख जाकर उन्हें वंदना करने से कितना फल होगा? इसलिए अविलम्ब चलें और भगवान् महावीर को वंदना करके, नमस्कार करके उनके मुखारबिन्द से धर्मोपदेश सुनें।
__ इस प्रकार परस्पर वार्तालाप करके उग्रवंशीय, भोगवंशीय आदि राजकुमार, नगर के अन्य लोग तथा राजा श्रेणिक और रानी चेलना, कोई हाथी पर, कोई घोड़े पर, कोई रथ पर सवार होकर भगवान् को वंदना करने आये। सब ने भगवान् को विधि पूर्वक वंदन नमस्कार किया। श्रेणिक राजा, चेलना रानी और समस्त परिषद् को सर्वानुगामिनी भाषा में अर्थात् सभी की समझ में आने वाली भाषा में, भगवान् ने धर्मोपदेश दिया।
__ प्रथम तो भगवान् सर्वज्ञ हैं-सब के मन की बात जानते हैं। दूसरे भगवान का अतिशय ही ऐसा है कि वे प्रत्येक को ऐसी भाषा में धर्मतत्त्व समझा सकते हैं, जिस भाषा में वह समझ सकता हो। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही है कि भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्मतत्व सभी की समझ में सरलता से आ जाये। इस सम्बन्ध में एक दृष्टान्त दिया जाता है।
जंगल में रहने वाला एक जंगली मनुष्य कहीं जंगल में जा रहा था। उसके साथ उसकी चार स्त्रियां भी थीं। वह अपनी चारों स्त्रियों पर समान भाव से प्यार करता था। चलते-चलते रास्ते में एक स्त्री ने कहा-'अगर आप १३६ श्री जवाहर किरणावली -