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घूम-घूम कर कल्याण करने के कारण भगवान् को जंगम तीर्थ कहा है। दूसरी बात यह है कि शहर में रहने वाले लोगों में वैसी प्रेम भावना प्रायः नहीं होती जैसी ग्रामीणों में होती है। ग्रामीणों पर थोड़े ही उपदेश का बहुत प्रभाव पड़ता है, क्योंकि उनका हृदय विशेष सरल होता है और उनका जीवन भी अपेक्षाकृत सात्विक और अल्पप्रवृत्ति वाला होता है। इसलिए भगवान् ग्रामानुग्राम होते हुए पधारे जिससे ग्राम्य जनता का भी कल्याण हो । आज भी पैदल विचरने वाले जानते हैं कि नागरिकों की अपेक्षा ग्रामीणों में कितनी अधिक श्रद्धा और कितना अधिक प्रेम पाया जाता है। उनमें त्याग - वैराग्य भी अधिक होता है और वे मुनियों को उच्च एवं आदर की दृष्टि से भी देखते हैं। ग्रामीणों में उत्साह भाव भी कहीं अधिक पाया जाता है ।
पैदल विहार करने में संयम का भी आनन्द होता है। जो रेल से यात्रा करते हैं उन्हें पैदल यात्रा के आनन्द की कल्पना भी नहीं हो सकती ।
अनुक्रम से पैदल ग्रामानुग्राम विहार करने का वृत्तान्त पीछे होने वालों के लिए लिखा गया है, जिससे भगवान् के पुनीत पथ पर चलने वालों को भगवान् के विहार की रीति मालूम हो और वे भी इसी प्रकार विहार करें। अन्यथा भगवान् तो वीतराग थे। उनके लिए नगर और ग्राम में कोई अन्तर नहीं था ।
भगवान् महावीर इस प्रकार विहार करते थे जिससे शरीर को विशेष कष्ट न हो अर्थात् वे सुखे - सुखे विहार करते थे। इस प्रकार विहार करते हुए भगवान् राजगृह नगर के गुणशील नामक बाग में पधारे। वहां पधार कर यथायोग्य अवग्रह करके तप-सयंम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ।
भगवान् तीन लोक के नाथ हैं। जन्म समय में इन्द्र उत्सव मनाते हैं। समस्त देवेन्द्र उनकी सेवा करने में कृतार्थता अनुभव करते हैं। छत्र - चामर आकाश में चलते है। उनका आन्तरिक और देवनिर्मित्त बाह्य वैभव अनुपम होता है। फिर भी भगवान् को अगर एक तिनके की आवश्यकता हो तो मांगकर ही लेते हैं। जो वस्तु संयम में उपयोगी नहीं है उसे लेने का तो पहले सेही त्याग है, मगर संयम में काम आने वाली वस्तुओं में से तिनका जैसी तुच्छ चीज भी वह बिना मांगे नहीं लेते। इस अनुपम त्याग के प्रभाव से ही छत्र - चामर आदि आकाश में चलते थे ।
भगवान् के छत्र - चामर आदि आकाश में चलते थे, लेकिन वह यह नहीं कहते थे कि हमें किसी से याचना करने की क्या आवश्यकता है, सब हमारा श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १३५