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________________ भगवान् महावीर उस समय सिद्ध गति को प्राप्त नहीं हुए थे। वे सिद्धि प्राप्त करने के इच्छुक थे। ऐसे भगवान् महावीर स्वामी राजगृही नगरी में पधारे। भगवान् को जाना तो है मोक्ष में, लेकिन पधारे हैं वे राजगृह में। इसका क्या तात्पर्य है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जगत् का उद्धार करना भगवान् का विरुद्ध है। इस विरुद्ध को निभाने के लिए ही भगवान् राजगृही में पधारे हैं। भगवान् स्वयं बुद्ध हो चुके हैं परन्तु संसार को बोध देने के लिए वह राजगृही में पधारे हैं। यहां एक बात और भी लक्ष्य देने योग्य हैं। वह यह कि भगवान् को किसी भी प्रकार की कामना नहीं थी। फिर भी उनके लिए कहा गया है कि भगवान् मोक्ष के कामी होकर भी राजगृही में पधारे। इस कथन से यह सूचित किया गया है कि एक कामना सभी को करनी चाहिए, जिससे अन्य समस्त कामनाओं का अन्त हो सके। वह कामना है मोक्ष की। मोक्ष की कामना समस्त कामनाओं के क्षय का कारण है और अन्त में वह स्वयं भी क्षीण हो जाती है। मोक्ष के अतिरिक्त और किसी वस्तु की कामना न करके ऐसे कार्य करना चाहिए जिसमें, दूसरे को चाहे आलस्य आवे परन्तु मोक्ष के कामी को आलस्य न आवे। भगवान् प्रतिक्षण-चौबीसो घंटे जगत् के कल्याण में ही लगाते हैं। हमें भी अपना जीवन ऐसा बनाना चाहिए। यह कहा जा सकता है कि भगवान् वीतराग थे, उन्हें अपने लिए कुछ करना शेष नहीं रहा था, अतएव वे जगत्-कल्याण में ही सम्पूर्ण समय व्यतीत करते थे, परन्तु हमारे मस्तक पर गृहस्थी का भार है, संसार सम्बन्धी सैकड़ों प्रपञ्च हमारे साथ लगे हैं। अगर हम अपना समस्त समय परोपकार में ही यापन करें तो गृहस्थिक कर्तव्यों का समुचित रूप से पालन कैसे हो सकता इसका उत्तर यह है कि भगवान् उस समय शरीरधारी थे। शरीरधारी होने के कारण भगवान् को शरीर सम्बन्धी अनेक चेष्टाएं करनी ही पड़ती थीं। फिर भी उनके लिए यह कहा गया है कि वे केवल मोक्ष के कामी थे, और कोई कामना उनमें विद्यमान नहीं थी। इसी प्रकार अगर आप यह विचार लें कि चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते समय मैं अपने इष्ट को न भूलूं और गृहस्थी के कार्य करते समय भी संसार के कल्याण का ध्यान बनाये रक्खू, तो क्या गृहस्थी सम्बन्धी कार्य रुक सकते हैं? नहीं। किसी भी कार्य को उदार भावना के साथ किया जाये तो वह कार्य बिगड़ता नहीं है वरन् उसमें एक प्रकार का सौन्दर्य आ जाता है। १२८ श्री जवाहर किरणावली -
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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