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और विशेष धर्मों का समूह ही वस्तु कहलाता है। वस्तु के सामान्य अंश को जानने वाला ज्ञान, दर्शन कहलाता है और विशेष अंश को जानने वाला ज्ञान, ज्ञान कहलाता है । भगवान् का ज्ञान और दर्शन दोनों ही अप्रतिहत हैं और समस्त आवरणों के क्षय से उत्पन्न होने के कारण वर अर्थात् प्रधान है।
विगतछद्म
कई लोगों की यह मान्यता है कि छद्मस्थों में भी इस प्रकार का ज्ञान-दर्शन पाया जा सकता है। मगर यह सम्भव नहीं है । छद्मस्थ का उपदेश मिथ्या भी होता है, अतएव वह अप्रतिहत ज्ञान दर्शन का धारक नहीं हो सकता। छद्मस्थ में अप्रतिहत ज्ञान - दर्शन नहीं हो सकता, यह भाव प्रदर्शित करने के लिए कहा गया है कि भगवान् 'विगतछद्म' हैं ।
छद्म के दो अर्थ हैं - आवरण - ढक्कन भी छद्म कहलाता है और धूर्तता को भी छद्म कहते हैं । भगवान् से छद्म हट गया है अर्थात् न उनमें कपट है, न आवरण है। जहां कपट होगा, वहां ज्ञान का आवरण भी अवश्य होगा। कपट को पूर्ण रूप से जीत लेना ज्ञान का मार्ग है।
यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि आज जो धर्मोपदेशक हैं, वह छद्मस्थ हैं। उनमें से कुछ कपट हटा होगा, पर कुछ कपट तो अब भी विद्यमान है । ऐसी अवस्था में उन पर विश्वास कैसे किया जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि यदि कोई उपदेशक अपनी ही ओर से उपदेश दे तब तो उपदेशक से यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या आप को पूर्ण ज्ञान हो गया है ? क्या आप में कपट नहीं रहा? अगर उपदेशक यह उत्तर दे कि हम पूर्णज्ञानी नहीं हैं तो उससे कहना चाहिए कि आपका उपदेश हमारे काम का नहीं है। हां, अगर उपदेशक यह कहता है कि मैं अपनी बुद्धि से उपदेश नहीं देता सर्वज्ञप्रणीत शास्त्र की ही बात कहता हूं। उस पर मैं स्वयं चलता हूं और दूसरों को चलने के लिये कहता हूं, तब तो कोई प्रश्न ही नहीं रहता । फिर वह उपदेश छद्मस्थ का नहीं, सर्वज्ञ का ही है।
आज मजहब से ऐसी बातें चल पड़ी हैं कि जिनसे लोग चक्कर में पड़ हैं। परन्तु श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि मैं अपनी ओर से कुछ भी नहीं कर रहा हूं जिन्होंने छद्म पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त कर ली थी, उन सर्वज्ञ, सर्वदर्शी भगवान् के उपदेश का ही मैं अनुवाद करता हूं। इस प्रकार शास्त्र को प्रमाण मान कर चलने से धोखा नहीं हो सकता ।
११८ श्री जवाहर किरणावली