________________
अप्रतिहत ज्ञान-दर्शनधर
__ भगवान् के लिए जो चक्षुदाता, मार्गदाता आदि विशेषण लगाये हैं, वह लोकोत्तर ज्ञान-सम्पन्न पुरुष में ही पाये जा सकते हैं, साधारण पुरुष में नहीं। भगवान् में क्या लोकोत्तर ज्ञान था? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा है-'भगवान् अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन के धारक थे। अप्रतिहत का अर्थ है किसी से बाधित न होने वाला, किसी से न रुकने वाला। पदार्थ की सूक्ष्मता, देश और काल सम्बन्धी व्यवधान, ज्ञानावरण कर्म आदि हमारे ज्ञान के बाधक हैं। मगर भगवान् के ज्ञान में इनमें से कोई भी बाधक विद्यमान नहीं है। पदार्थ चाहे स्थूल हो चाहे सूक्ष्म हो, कितनी ही दूर हो या पास हो, भूतकाल में हो या भविष्यकालीन हो, भगवान् का ज्ञान समस्त पदार्थों को हथेली पर रक्खे हुए पदार्थ की भांति स्पष्ट रूप से जानता है। देश, काल या पदार्थ सम्बन्धी किसी भी सीमा से भगवान् का ज्ञान सीमित नहीं है। तर्क-वितर्क से उसमें विषमता नहीं आ सकती। कहीं भी वह ज्ञान कुण्ठित नहीं होता। इसलिए भगवान् का ज्ञान अप्रतिहत है क्योंकि वह क्षायिक हैं।'
इसी प्रकार भगवान् में अप्रतिहत दर्शन है। वह दर्शन भी किसी भी पदार्थ से रुकता नहीं है। भगवान् दर्शन से संसार के समस्त पदार्थों को अबाधित रूप से देखते हैं।
वस्तु में सामान्य और विशेष-दोनों धर्म हैं। कोई पदार्थ न केवल विशेष रूप ही है, अपितु जहां सामान्य है वहां विशेष भी है, जहां विशेष है वहां सामान्य भी अवश्य है। यथा-जीवत्व एक सामान्य धर्म है, जहां जीवत्व होगा वहां कोई न कोई विशेष धर्म अवश्य होगा-अर्थात् वहाँ मनुष्य, पशु, पक्षी, देव, नारक आदि में से कोई होगा ही। इसी प्रकार जो पशु, पक्षी या मनुष्य है वह जीव रूप अवश्य होगा। सामान्य और विशेष सहचर हैं-एक को छोड़ कर दूसरा नहीं रह सकता। अथवा यों कहा जा सकता है कि सामान्य
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ११७