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अग्नि आदि से कुछ न कुछ सभी को ग्रहण करना पड़ता है। मगर जो ले तो लेता है, मगर बदले में कुछ नहीं देता वह पापी है।
कई लोग दान देकर अभिमान करते हैं। इसलिए भगवान् ने कहा कि दान के साथ शील का भी पालन करो अर्थात सदाचारी बनो।
तप के अभाव में सदाचार भ्रष्ट हो जाता है। सदाचार को स्थिर रखने के लिए तप अनिवार्य है। अतएव भगवान् ने तप का उपदेश दिया है। तप का अर्थ केवल अनशन करना ही नहीं है। तप की व्याख्या बहुत विशाल है। भगवान् ने बारह प्रकार के तपों का वर्णन किया है। भगवान् ने कहा है कि तप के बिना मन, शरीर और इन्द्रियां ठीक नहीं रहती।
भावना हीन तप यथेष्ट फलदायक नहीं होता। अतः धर्म में भाव की प्रधानता है। 'यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः' अर्थात् भावशून्य क्रियाएं काम की नहीं हैं।
भगवान् ने धर्म के यह चार विभाग बतलाये हैं। ऐसे विभाग दूसरे धर्मोपदेशकों ने नहीं बतलाये हैं। इन चार धर्मों को चतुरन्त या चातुरन्त कहा गया है भगवान् इस धर्म के चक्रवर्ती हैं।
__ अथवा-देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति और नरकगति का अन्त करने वाला चतुरन्त कहलाता है। ऐसे चतुरन्त श्रेष्ठ धर्म का उपदेश देने के कारण भगवान् धर्मवर चतुरन्त चक्रवर्ती कहलाते हैं।
शास्त्रकारों को न तो स्वर्ग से प्रीति थी और न उन्होंने स्वर्ग प्राप्ति के लिए उपदेश ही दिया है। उन्होंने चारों गतियों का यथार्थ स्वरूप बतलाकर उनका अन्त करने का उपदेश दिया है। यहीं नहीं शास्त्रकारों ने समय समय पर स्वर्ग की निन्दा भी की है और कहा है कि स्वर्ग ऐसा स्थान है जहां पहुंच कर जीव का पतन भी हो सकता है।
___ चारों गतियों का अन्त करने के लिए भवसंतति का छेदन करना आवश्यक है। एक गति से दूसरी गति में आना और दूसरी गति के बाद तीसरी गति में उत्पन्न होना भवसंतति है। इस भव परम्परा को खंडित कर देना ही चार गतियों का अन्त करना कहलाता है।
११६ श्री जवाहर किरणावली