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सम्पूर्ण सत्य को प्रकाशित करता है। इस प्रकार अतिशय विशाल भाव वाला भगवान् का राज्य है।
धर्म है जो प्रधान चक्रवर्ती है वही धर्मवर चक्रवर्ती कहलाता है। जैसे समुद्र में मिल जाने पर नदियों में भेद नहीं रहता, उसी प्रकार धर्मों के सार भगवान् के सिद्धान्त में आकर एक हो जाते हैं उनमें भेद नहीं रहता। यह भगवान् का धर्म के विषय में चक्रवर्तीपन है।
___ पार्थिव चक्रवर्ती के विषय में कहा जाता है कि वह अन्यान्य राजाओं की अपेक्षा अत्यन्त अतिशयशाली एवं प्रजा पालक होता है। ग्रन्थों से विदित होता है कि चक्रवर्ती प्रजा से उसकी आय का चौसठवां भाग कर लेता है। कम कर लेकर प्रजा को अधिक सुखी एवं समृद्ध बनाने वाला पूर्वोक्त राजा चक्रवर्ती कहलाता है। जो स्वार्थ से प्रेरित होकर नये-नये कर प्रजा से वसूल करता है, प्रजा जिसकी शरण में स्वेच्छा से नहीं अपितु भय के कारण जाती है, वह राजा नहीं, चक्रवर्ती भी नहीं हो सकता। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में देखने से ज्ञात होगा कि सच्चा राजा कौन हो सकता है और राजा का कर्तव्य क्या है?
संसार में जितने धर्मोपदेशक हुए हैं, उनमें सब से उत्तम बाधा रहित शक्ति से उपदेश करने वाले भगवान् महावीर हैं। इसी कारण उन्हें धर्म का चक्रवर्ती कहा गया है। चक्रवर्ती उच्च-नीच और छोटे-बड़े का भेदभाव नहीं रखता, किन्तु समानभाव से सभी को अपने राज्य में स्थान देता है। इसी प्रकार भगवान् महावीर ने अपने धर्म में स्त्री-शूद्र आदि के भेदभाव को स्थान नहीं दिया है। भगवान् के धर्म में हर किसी को समान अधिकार प्राप्त हैं। जिस में जितनी योग्यता हो वह उतना धर्म का अनुष्ठान कर सकता है। जहां जाति-पांति के कल्पित भेदभावों को स्थान है, वह वास्तव में धर्म ही नहीं है।
___ चक्र अनेक प्रकार के होते हैं। राज्यचक्र भी चक्र कहलाता है और धर्मचक्र भी चक्र ही है। धर्मचक्र उनमें प्रधान है। धर्मचक्र के प्रवर्तक अनेक हुए हैं। कपिल, सुगत आदि ने जो धर्मचक्र चलाये हैं, उनकी अपेक्षा भगवान् का धर्मचक्र अत्यन्त अतिशयशाली और सब में प्रधान है। इस कारण भी भगवान् को धर्मचक्रवर्ती कहा गया है।
अथवा-दान, शील, तप और भावना का चतुर्विध धर्म का उपदेश एवं प्रसार के कारण भगवान् धर्मवर चातुरन्त चक्रवर्ती कहलाते हैं।
दान, धर्म उत्पन्न होने की भूमि है। दान से ही धर्म होता है। दूसरे से कुछ भी लिये बिना किसी का जीवन ही नहीं निभ सकता। माता-पिता, पृथ्वी,
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ११५