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धर्मसारथि भगवान् धर्मोपदेशक ही नहीं, धर्म-सारथि भी हैं। सारथि उसे कहते हैं जो रथ को निरुपद्रव रूप से चलाता हुआ रथ की रक्षा करता है, रथी की रक्षा करता है, और रथ में जुते हुए घोड़ों की रक्षा करता है। भगवान् धर्म-रथ के सारथि हैं।
भगवान् ने हम लोगों को धर्म के रथ में बिठलाया है, और आप स्वयं सारथि बने हैं। भले ही यह कथन आलंकारिक हो, मगर तथ्यहीन नहीं है। श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी कहा जाता है कि वे अर्जुन के सारथि बने थे। उन्होंने अर्जुन को रथ में बिठलाया और आप सारथि बने। भगवान् महावीर भी धर्म रथ के सारथि हैं। लेकिन रथ में बैठने वाला जब अर्जुन जैसा हो, तब कृष्ण जैसे सारथि बनते हैं।
भगवान् धर्म रथ में बैठने वालों के सारथि बन कर उन्हें निरुपद्रव स्थान मोक्ष में पहुंचा देते हैं।
भगवान् भी धर्म की सेवा करते हैं। वह स्वयं धर्म के सारथि बने हैं। भगवान् का यह आदर्श उन लोगों के लिए विचारणीय है जो अपनी ही सेवा करना चाहते हैं और धर्म की सेवा से दूर भागना चाहते हैं। धर्म करना एक बात और धर्म की सेवा-रक्षा करना दूसरी बात है। धर्म की सेवा-रक्षा करना बड़ा काम है।
भगवान् के लिए यह उपमा इसलिए दी जाती है कि चारित्र रूपी, संयम रूपी या प्रवचन रूपी रथ में जो बैठते हैं या उस रथ में बैठने वालों के जो सहायक हैं, भगवान् उनकी रक्षा करते हैं।
धर्मवन चातुरन्त-चक्रवतीअब यह प्रश्न होता है कि भगवान् महावीर को जो विशेषण लगाये गये हैं, वह विशेषण तो दूसरों ने भी अपने इष्ट देवों को लगाये हैं। तब उनमें और भगवान् महावीर में क्या अन्तर है? वे और भगवान् क्या समान ही है? अगर समानता नहीं हैं तो भगवान् में क्या विशेषता है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि भगवान् महावीर में दूसरों से विशेषता है। वह विशेषता यह है कि भगवान् धर्म के चक्रवर्ती हैं?
पूर्व पश्चिम और दक्षिण-इन तीन दिशाओं में समुद्र पर्यन्त और उत्तर दिशा में चूलहिमवन्त पर्वत पर्यन्त के भूमिभाग का जो अन्त करता है अर्थात्
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ११३