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लोकोत्तम - लोकनाथ
श्री सुधर्मा स्वामी, जम्बू अनगार से कहते हैं- भगवान् महावीर पुरुषसिंह हैं, पुण्डरीक हैं और पुरुषगंधहस्ती हैं। इन उपमाओं के कारण भगवान् पुरुषोत्तम हैं। मगर वह केवल पुरुषोत्तम ही नहीं हैं, लोकोत्तम भी हैं। लोक शब्द से स्वर्गलोक, मृत्युलोक और पाताललोक तीनों का ग्रहण होता है। तीनों लोकों में जो ज्ञान आदि गुणों की अपेक्षा सब में प्रधान हो वह लोकोत्तम कहलाता है ।
पुरुषोत्तम और लोकोत्तम विशेषणों के अर्थ में अन्तर है। पुरुषोत्तम विशेषण से मनुष्य लोक में ही उत्तमता प्रकट की गई है अर्थात् भगवान् समस्त मनुष्यों में उत्तम थे, यह भाव प्रदर्शित किया गया है और लोकोत्तम विशेषण का तात्पर्य यह कि भगवान् तीनों लोकों में रूप की अपेक्षा उत्तम होने के साथ-साथ तीनों लोकों के नाथ भी हैं। तीन लोक के नाथ होने से भगवान् लोकोत्तम हैं। नाथ शब्द का अर्थ है
योगक्षेमकरो नाथः ।
अर्थात् योग और क्षेम करने वाला नाथ कहलाता है।
योग का अर्थ है - अप्राप्त वस्तु को प्राप्त होना और क्षेम का अर्थ है - प्राप्त वस्तु की संकट के समय रक्षा होना । भगवान् योग भी करने वाले हैं और क्षेम भी करने वाले हैं, अतः वह नाथ हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आदि सद्गुण, जो आत्मा को अनादि काल से अब तक प्राप्त नहीं हैं, उन्हें भगवान् प्राप्त कराने वाले हैं। और यदि यह सद्गुण प्राप्त हो गये हैं तो किसी संकट के समय इनसे विचलित होना संभव है, मगर भगवान् इसकी रक्षा करते हैं ।
सम्यग्दर्शन आदि सद्गुणों की रक्षा भगवान् किस प्रकार करते हैं? इसका उत्तर यह है कि भगवान् का साधक जीवन धार्मिक दृढ़ता का ज्वलंत उदाहरण है। घोर से घोर उपसर्ग आने पर भी भगवान् अपने निश्चित पथ से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए । उनके जीवन को यह व्यावहारिक आदर्श संकट के समय उनके भक्तों का अद्भुत प्रेरणा, असीम साहस, दृढ़ता और सान्त्वना प्रदान करता है । उनके आदर्श का स्मरण करके भक्तजन संकट को विचलित हुए बिना सहज ही पार कर लेते हैं। इस प्रकार उनके भक्तों के सद्गुणों की रक्षा होती है। इसी प्रकार भगवान् का उपदेश भी सद्गुणों की रक्षा में सहायक होता है ।
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १०१