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'सहसंबुद्धे' शब्द का विवेचन। तीर्थंकर भगवान ने जो प्रवचन किया है, उन्होंने किसी से सीख कर किया है या स्वयं जानकर? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि तीर्थंकर स्वयं ही अपने अनन्त, असीम केवलज्ञान से पदार्थो के सम्पूर्ण स्वरूप को हस्तामलकवत् जानते हैं। उन्हें किसी से कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं होती। किसी से सीखकर कहे हुए वचन वस्तुतः प्रवचन नहीं है, किन्तु दूसरे के उपदेश के बिना ही, स्वयमेव जिन्हें ज्ञान प्राप्त हो उन स्वयं सम्बुद्ध भगवान् का कथन ही प्रवचन या तीर्थ कहलाता है।
___ आचार्य और साधु किसी को दीक्षा देते हैं, किसी को श्रावक, श्राविका और किसी को साधु-साध्वी बनाते हैं। किसी को व्रत धारण कराते हैं। फिर भी वह तीर्थंकर पदवी के पात्र नहीं हैं, क्योंकि इतना करने से ही कोई तीर्थंकर नहीं हो जाता। तीर्थंकर पदवी वही महापुरुष पा सकते हैं जो स्वयं-दूसरे के उपदेश बिना ज्ञान प्राप्त करते हैं और प्राप्त ज्ञान के अनुसार तीर्थ की स्थापना करते हैं। आचार्य और साधु तीर्थ हो सकते हैं, तीर्थंकर नहीं। तीर्थकर तो स्वयं संबुद्ध ही होते हैं।
जो लोग दूसरों से उपदेश ग्रहण करते है, उनमें भी स्वकीय बुद्धि किन्हीं अंशों में विद्यमान रहती है। अगर उनमें स्वकीय बुद्धि न हो तो दूसरे से उपदेश ग्रहण करना ही असंभव है। ऐसी स्थिति में साधारण को भी स्वयं बुद्ध क्यों न कहा जाय? इस शंका का समाधान यह है कि साधारण बुद्धि होने से ही कोई स्वयं संबुद्ध नहीं कहलाता। आत्म कल्याण की दृष्टि से जो जगत् के समस्त पदार्थों को जानता है-क्या हेय है, क्या उपादेय (ग्राह्य) है, क्या उपेक्षणीय (उपेक्षा करने योग्य) है, इस प्रकार पदार्थों का पूरी तरह ज्ञाता होता है और यह ज्ञान भी जिसे स्वतः प्राप्त होता है, वही स्वयं संबुद्ध कहलाता है।
"पुरुषोत्तम' शब्द का विवेचन__ भगवान् महावीर स्वामी पुरुषोत्तम थे-पुरुषों में उत्तम थे। भगवान् के अलौकिक गुणों का अतिशय ही उनकी उत्तमता का कारण है। भगवान् के बाह्य और आभ्यन्तर-दोनों ही प्रकार के गुण लोक असाधारण थे। उनका शरीर एक हजार आठ उत्तम लक्षणों से सम्पन्न था, रूप में अनुपम और असाधारण था। भगवान् के शारीरिक सौष्ठव की समानता कोई दूसरा नहीं
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ८६