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कर सकता था। इसी प्रकार उनके आन्तरिक गुण भी असाधारण थे । उनका ज्ञानातिशय, दर्शनातिशय एवं वचनातिशय अलौकिक एवं असामान्य था । देवराज इन्द्र उनके रूप को देखते-देखते और उनके गुणों की स्तुति करते-करते थकता नहीं था। इस प्रकार क्या शारीरिक और क्या आध्यात्मिक, सभी विशेषताएं भगवान् में असाधारण थीं। संसार का कोई भी पुरुष उनकी सानी रहीं रखता था । इस कारण भगवान पुरुषोत्तम थे ।
पुरुषोत्तम शब्द का व्यवहार साधरणतया आपेक्षिक उत्तमता के कारण भी किया जाता है। सौ-दो सौ पुरुषों में जो सबसे अधिक सुन्दर हो, विशेष बुद्धिमान हो, वह भी लोक में पुरुषोत्तम कहा जाता है। मगर भगवान् में ऐसी सापेक्ष उत्तमता नहीं थी । भगवान् उत्तमता सर्वातिशयिनी थी । अर्थात् संसार के समस्त पुरुषों की अपेक्षा से थी। इस भाव को स्पष्ट करने के लिए भगवान् को आगे के विशेषण लगाये गये हैं।
पुरुषसिंह
भगवान् पुरुषोत्तम होने के साथ पुरुषसिंह भी थे। भगवान् जंगल में रहने वाले सिंह नहीं, वरन् पुरुषों में सिंह के समान थे ।
'सिंह' शब्द 'हिंस' धातु से बना है। जो हिंसा करता है अन्य प्राणियों को मारकर खा जाता है। उस वन्य पशु को सिंह कहते हैं। सिंह में अनेक दुर्गुण होते हैं। फिर अहिंसा की साक्षात् मूर्त्ति भगवान् को 'सिंह' के समान क्यों कहा गया है ? इसका उत्तर यह है कि उपमा सार्वदेशिक कभी नहीं होती। उपमान और उपमेय - दोनों के समस्त गुणों का मिलान कभी हो ही नहीं सकता। मुख को चन्द्रमा की उपमा दी जाती है। मगर अमावस्या के अंधकार को दूर करने के लिए मुख का उपयोग नहीं किया जा सकता । क्रोधी पुरुष को अग्नि की उपमा दी जाती है। मगर भोजन पकाने के लिय क्रोधी का उपयोग नहीं किया जा सकता। तात्पर्य यह है कि उपमा सदा एकदेशीय होती है। दो पदार्थों के एक या कुछ अधिक गुणों की समानता देखकर ही, एक से दूसरे को समझने के लिए उपमा का व्यवहार किया जाता है। दो पदार्थों के समस्त गुण एक सरीखे हो ही नहीं सकते। यहां भगवान् को 'सिंह' की जो उपमा दी है सो सिंह की वीरता, पराक्रम, रूप, गुण की समानता को लक्ष्य करके ही दी गई है। सिंह में जहां अनेकों दुर्गुण हैं वहां उसमें वीरता का लोक प्रसिद्ध गुण भी है। जैसे समस्त पशुओं में सिंह अधिक पराक्रमशाली
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श्री जवाहर किरणावली