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________________ यास्क एवं पाणिनिके ग्रन्थोंका भाषा वैज्ञानिक आधार पर परीक्षण किया जाय तो यास्कके ग्रन्थकी प्राचीनता स्पष्ट प्रतिलक्षित होगी। यास्कने अपने निरुक्तमें अनेक ऐसे धातुओंका प्रयोग किया है, जो पाणिनीय धातु पाठमें उपलब्ध नहीं होते। जैसे'अतिदंही'२२ शब्दमें यास्क दानार्थक दंह धातुका प्रयोग करते हैं, जो पाणिनि व्याकरणमें नहीं है। इसी प्रकार जू' नक्ष' आदि धातुएं भी केवल यास्क के निरुक्तमें प्राप्त होते हैं, पाणिनिकी अष्टाध्यायीमें नहीं। यास्कने जिन अर्थों में कुछ धातुओंका प्रयोग किया है, वे पाणिनिसे भिन्न हैं। यास्क 'शप' धातुका स्पर्श अर्थमें प्रयोग करते है तो पाणिनि इसका प्रयोग आक्रोश अर्थ में करते हैं। इसी प्रकार यास्क ने कल्, नम् एवं मृग् धातुओंका गति, क्रुश् का शब्द , विस् का भेदन, ह्लाद का शीतीमाव, मंह का वृद्धि एवं दान, ध्वृ का हिंसा, दद् का धारण, दध का सवण एवं वक्ष् का समृद्धि अर्थमें प्रयोग किया है। लेकिन पाणिनिने कल का क्षेप, नम् का भाषण, मृज् का शुद्धि, क्रुश् का आह्वान एवं रूदन, विस् का प्रेरणा, ह्लाद का अव्यक्त शब्द या सुख, मंह का वृद्धि, ध्वृ का हूर्छन् अर्थात् वंचक वृत्ति करना, दद् का दान, दध् का घातन या पालन एवं चक्ष् का गति एवं हिंसा अर्थ में प्रयोग किया है। यास्क के समय चक्ष तथा ख्या धातु स्वतन्त्र रूप में प्रयुक्त थे।२३ लेकिन पाणिनीय व्याकरणमें चक्ष तथा ख्या स्वतंत्र धातु नहीं हैं। कुछ प्रयोगोंमें चक्ष् धातुका प्रयोग मिलता है तथा कुछ में ख्या का।२४ पाणिनि के आधार पर ख्या चक्ष का समानार्थक है चक्ष् धातुका अदेश नहीं। यास्कके समय दोनों समानार्थी थे। अतः चक्षुः शब्दकी व्याख्यामें वे दोनों धातुओंका प्रदर्शन करते हैं। अगर यास्कके समय इन दोनों धातुओंमें कोई सम्बन्ध हुआ होता तो चक्षुः शब्दके निर्वचन में भी यास्क एक ही धातुका प्रयोग दिखलाते। इससे स्पष्ट होता है कि इस प्रयोगान्तरमें समयान्तर भी अवश्य होगा। अतः पाणिनि यास्कसे अर्वाचीन हैं। __यास्क द्वारा प्रयुक्त तद्धितके कुछ प्रत्यय भी पाणिनिके तद्धित प्रत्ययोंसे भिन्न हैं। यथा-अध्वरयुप एवं कक्ष्या में यास्क क्रमशः 'यु' तथा या प्रत्ययका प्रयोग करते हैं। यास्कने अध्वरयु में 'यु' उपबन्ध (प्रत्यय) माना है, जो युज् धातु या तत्कामयते अथवा तदधीयते अर्थमें प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार 'इंदयु'२६ में यास्क ने 'यु' के दो अर्थ बतलाये हैं,कामयमानः तथा तद्वान्। यु'का व्यवहार तद्वत्' अर्थमें भी उस समय प्रचलित था।२७ यास्कके समय में 'यु'केप्राय:तीन अर्थ देखनेको मिलतेहैं, तद्वान्, कामयमान:तथा तदधीते। इनमें यथोत्तर उस समय कम प्रचलितथे।पाणिनि व्याकरणसे ७८: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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