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________________ गल मुद्गल। (५) मुदांगलो वार अर्थात् वह हर्षसे परे हैं। इसके अनुसार इस शब्दमें मुद्+ गृ धातुका योग है- मुद्+ गृ-गल- मुद्गलः। अर्थात्मक आधार सभी निर्वचनोंका युक्त है। प्रथम एवं अंतिम निर्वचन ध्वन्यात्मक महत्व भी रखता है। इन दोनोंको भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे उपयुक्त माना जा सकता है। शेष निर्वचनोंमें स्वरगत औदासिन्य है। व्याकरणके अनुसार मुदं + गृ + अच् प्रत्यय कर मुद्गल शब्द बनाया जा सकता है। यास्कका यह निर्वचन कर्म एवं प्रकृतिको आधार मानता है। (४१) भूम्यश्व :- यह मुद्गल ऋषिके पिताका नाम है। निरुक्तके अनुसार मृम्यश्वो मृमयोऽस्याश्वा: अर्थात् जिनके घोड़े चंचल हो उन्हें भृम्यश्व कहते हैं। इसके अनुसार इसमें मृम् + अश्वका योग है। मृमयश्चंचलाः सन्ति अस्य अश्वाः इति मृम्यश्वाः । (२) अश्वमरणादार अर्थात् वे अश्वोंको भरणपोषण करते हैं इसलिए मृम्यश्व कहलाये। इसके अनुसार इस शब्दमें अश्व + भृ भरणे धातुका योग है- अश्व+ मृ= मृ + अश्क्= भृम्यश्वः (पदपरिवर्तन) प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे युक्त है। द्वितीय निर्वचन अर्थात्मक महत्व रखता है। भाषा विज्ञानके अनुसार प्रथम निर्वचनको संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार इसे समासान्त शब्द माना जायगा। मृमयः अस्य अश्वा इति भृम्यश्वः। (४२) पितु :- यह अन्नका वाचक है। निरुक्तके अनुसार (१) पितुरित्यन्न नाम पाते अर्थात् अन्नवाचक पितुःशब्द पासणेधातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि अन्नसे स्थाकी जाती है। शरीरकी स्था अन्नसे होती है। (२) पिवते९ि अर्थात् पितुःशब्द पा भक्षणे धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि अन्नका भक्षण किया जाता है। (३) प्यायतेरि अर्थात् प्यै वृद्धौ धातुके योगसे यह शब्द निष्पन्न होता है, क्योंकि इससे शरीरकी वृद्धि होती है। प्रथम दो निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे युक्त हैं। इसे माषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी संगत माना जायगा। अंतिम निर्वचन अर्थात्मक महत्व रखते हैं। लौकिक संस्कृतमें पितुःशब्द अन्नका वाचक नहीं है। वह पितृ शब्दका षष्ठ्यन्तरूप है पितृ शब्दमें मी पा रक्षणे धातुका योग है जो पा + तृच से बनता है, क्योंकि पिता पुत्रकी खा करता है। (४३) तविषी :- इसका अर्थ होता है बला निरुक्तके अनुसार- तविषीति बलनाम तवतेर्वा वृद्धिकर्मण:४९ अर्थात् यह शब्द तु या तव् वृद्धौ धातुके योग से निष्पन्न होता है, क्योंकि इसकी वृद्धि होती है या यह वर्द्धनशील होता है। इस निर्वचन का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञान के अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरण के अनुसार तव वृद्धौ से चिषच् ४३५:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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