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________________ उपयुक्त है। भाषाविज्ञानक अनुसार इस सगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार भ+अच् = भर्वः सु+भर्व: सुभर्वः सुभर्वम् बनाया जा सकता है। (३७) प्रधन :- यह संग्रामका वाचक है। निरुक्तके अनुसार- प्रधन इति संग्राम नाम प्रकीर्णान्यस्मिन् धनानि भवन्ति।४९ अर्थात् इसमें धन प्रकीर्ण रहते हैं। इसके अनुसार प्रधन शब्दमें प्रकीर्ण-प्र+धनका योग माना जायगा।५१ इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार प्र+धा+क्नु:=प्रधनम् बनाया जा सकता है।५२ ।। (३८) द्रुघण :- इसका अर्थ होता है मुद्गर, युद्धास्त्र। निरुक्तके अनुसार द्रुघणो द्रुममयो घन:४९ अर्थात् यह लकड़ीका घन (कुन्द) बना रहता है। मुद्गर (गदा) लकड़ीसे नर्मित युद्धास्त्र है। इस निर्वचनके अनुसार द्रुघण शब्द द्रुम + घनके योग से निष्पन्न माना जायगा- द्रम+घन: द्रमघन, द्रघनः। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार भी इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार द्रु+हन्+अप् प्रत्यय कर द्रुघणः शब्द बनाया जा सकता है।५३ (३९) पृतनाज्यम् :- यह संग्रामका वाचक है। निरुक्तके अनुसार (१) पृतनाज्यमिति संग्रामनाम पृतनानामजनाद्वा४९ अर्थात् संग्राम वाचक पृतनाज्य शब्द पृतना+ अज् गतौ धातुके योगसे निष्पन्न हुआ है। घृतना सेनाका वाचक है।५४ सेना इस संग्राममें गमन करती है। (२) जयनाद्वा०९ अर्थात् इस शब्दमें पृतना + जि जये धातुका योग है,क्योंकि सेना उस संग्राममें विजय प्राप्त करती है। यह निर्वचन सामासिक आधार रखता है (पृतनामस्मिन् अर्जन्ति या जयन्ति तत् पृतनाज्यम्) इसका ध्वन्यात्मक तथा अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्राय: नहीं देखा जाता। (४०) मुद्गल :- यह एक ऋषिका नाम हैं। भृम्यश्वके पुत्र भार्ग्यश्व ही मुद्गल हैं।५५ निरुक्तके अनुसार (१) मुद्गलो मुद्गवान्४२ अर्थात् मूंगवान मुद्गल कहलाता है। इसके अनुसार मुद्ग+मतुप. मुद्गवानसे मुद्गल माना गया।५६ मत्वर्थमें ल प्रत्ययका विधान है। (२) मुद्गिलोवा अर्थात् वह मूंग खाने वाला है। इसके अनुसार इस शब्दमें मुद्ग+गृ निगरणे धातुका योग है। मुद्ग + गृ-गर गल मुद्गल : (र का ल वर्ण परिवर्तन) (३) मदनं गिलतीति४९ अर्थात् वह कामदेव को वश में करता है। इसके अनुसार मदन+गृ धातुसे मुद्गल माना गया। (४) मदंगिलो वा४९ अर्थात् वह मद को खा जाता है, शान्ति प्रिय होनेके कारण, या अप्रमत्त है। इसके अनुसार इस शब्द में मद+ गृ धातुका योग है - मद +गृ. ४३४:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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