SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है। व्याकरण के अनुसार गै+शतृ+त्रैङ् पालने+क:१५-गायत्र-गायत्री शब्द बनायाजा सकता है। (८) उष्णिक :- यह वैदिक छन्दका नाम है। निरुक्तके अनुसार (१)उष्णि गुत्स्नाता भवति१ अर्थात् यह छन्द गायत्रीकी अपेक्षा चार अधिक अक्षरोंसे उत्स्नात है, बढा हुआ है। गायत्री छन्दमें चौबीस अक्षर होते है जबकि उष्णिक् छन्दमें अठाइस अक्षर। इस निर्वचनके अनुसार इस शब्दमें उत् + स्ना धातुका योग है। (२) स्निह्यतेर्वा स्यात्कान्तिकर्मणः१ अर्थात् यह शब्द इच्छार्थक ष्णिह् धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह छन्द देवताओंको प्रिय लगता है। (३) उष्णीषिणीवेत्यौपमिकम्प अर्थात् इस छन्दके बढे चार अक्षर उष्णीष तुल्य हैं। इस निर्वचनमें उपमाका आधार अपनाया गया है। फलतः उष्णीषके सादृश्यसे उष्णिक माना गया। इसमें अर्थात्मक एवं ध्वन्यात्मक सादृश्य उपस्थापित किया गया है। यास्कके द्वितीय निर्वचनमें उपयुक्त ध्वन्यात्मकता है। डा० वर्मा इसे पापुलर इटीमोलोजी मानते है।१६ व्याकरणके अनुसार उत् + स्निह् + किन् प्रत्यय कर उष्णिक् शब्द बनाया जा सकता है। (९) उष्णीषम् :- यह पगड़ी (शिरस्त्राण) का वाचक है। निरुक्तके अनुसार - उष्णीष स्नायतेः१ अर्थात् यह शब्द स्नै वेष्टने धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह शिरको आवेष्टित किए रहती है इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण उपयुक्त नहीं है। अर्थात्मक आधार सर्वथा संगत है। यास्कके उक्त निर्वचनमें आदिस्वरागम माना जायगा। व्याकरणके अनुसार उष्ण+ ईष् गत्यादौ धातुसे क:१७ प्रत्यय कर उष्णीष शब्द बनाया जा सकता है। (१०) ककुपः-यह छन्द का उपभेद है। इसे उष्णिक छन्दका एक भेद माना गया है। निरुक्त्तके अनुसार ककप ककुभिनी भवति अर्थात् ककुप छन्द मध्योन्नत होती है। १ इस छन्दके मध्य पादमें कुछ अधिक अक्षर होते है जैसे कुबड़े का मध्य भाग उठा होता है इसी सादृश्य के अनुसार इस छन्दको भी ककुप् कहा गया। ककुप् च कुजतेर्वा१ अर्थात् यह शब्द कुटिल अर्थ वाले कुज् धातुसे बनता है क्योंकि इसका मध्य कुब्ज होता है।कुज-ककुपाउब्जतेर्वा अर्थात्यह शब्द न्यग् भावार्थकउब्ज् धातुसे निष्पन्न होता है क्योंकि पृष्ठदेश या मध्य देश के पासका भाग कुछ नत रहता है।८ सभी निर्वचनों का अर्थात्मक महत्त्व है।ध्वन्यात्मक दृष्टिसे सभी निर्वचन अपूर्ण हैं। इसके निर्वचनोंमें यास्कने सादृश्य नियमका सहारा लिया है।व्याकरणके अनुसार का स्कुभ+क्विप् ३९९ :व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy