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________________ स्यादश्लाघाकर्मण:६५ अर्थात् लक्ष्मीवान अश्लाघी होते हैं, लज्जाशील होते हैं। इसके अनुसार इस शब्दमें अश्लाघार्थक (लज्जार्थक) लस्ज् धातुका योग है। उपर्युक्त निर्वचनोंसे स्पष्ट है कि यास्कने लक्ष्मी: शब्दमें लम, लक्षः, लांछि, लष्, लग्, एवं लस्ज छ धातुओं की संभावना की है। अर्थात्मक दृष्टिकोणसे सभी निर्वचन उपयुक्त हैं। विभिन्न अर्थोपलब्धि के लिए इतने प्रकार के निर्वचन किए गए हैं। इन निर्वचनोंसे लक्ष्मी एवं लक्ष्मीवान् का प्रकृतिगत या गुणगत स्वरूप स्पष्ट होता है। ध्वन्यात्मक आधार पर लक्ष, लग् या लष् धातुसे लक्ष्मीः शब्द उपयुक्त है। फलतः भाषा विज्ञान के अनुसार यास्क का द्वितीय, चतुर्थ एवं पंचम निर्वचन संगत माना जाएगा। व्याकरण के अनुसार लक्ष् दर्शनाशंकयोः धातु से मुट्+ ई प्रत्यय७२ कर लक्ष्मीः शब्द बनाया जा सकता है। (४१) मन्दू.:- यह प्रथमा द्विवचन का रूप है। यह शब्द इन्द्र तथा मरुद्गण के विशेषणके रूपमें प्रयुक्त हुआ है। निरुक्तके अनुसार -मन्दू मदिष्णू५ अर्थात् सदा प्रसन्न रहने वाला या हर्षित रहने वाला इन्द्र एवं मरुद्गण। इसके अनुसार मन्दू शब्द में मद् धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। (४२) ईन्ति :- इसका अर्थ होता है विस्तृत अन्तवाला दिव्याश्वा निरुक्तके अनुसार (१) इर्मान्ताः समीरतान्ताः, सुसमीरितान्ताः अर्थात् समीरित या सुसमीरित अन्त वाला। इसके अनुसार इस शब्दमें ईर् क्षेपे धातुका योग है। (२) पृथवन्तावा५ अर्थात् जिसका अन्त भाग स्थूल या पृथु हो। अश्वका अन्त माग स्थूल होता है। अन्तिम निर्वचन में मात्र अर्थ स्पष्ट किया गया है। प्रथम निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत है। व्याकरणके अनुसार ईर् धातुसे मक् प्रत्यय कर इन्ति शब्द बनाया जा सकता है। (४३) सिलिकमध्यम :- इसका अर्थ होता है जिसका मध्य माग संश्लिष्ट है। यास्कने इसके दो निर्वचन प्रस्तुत किए -(१) संसृत मध्यमा६५अर्थात् परस्पर संश्लिष्ट मध्यभाग वाला। इसके अनुसार इसमें सम्-सृगतौ धातुका योग है। (२) शीर्षमध्यमा अर्थात् जिसका मध्यम ही मुख्य हो। यह सूर्यके अश्वका विशेषण है। दोनों निर्वचन अर्थात्मक महत्त्व रखते हैं। द्वितीय निर्वचन अधिक स्पष्ट है। (४४) शिर :- यह आदित्य एवं मस्तकका वाचक है। निरुक्तके अनुसार -शिर आदित्यो भवति। यदनुशेते सर्वाणि भूतानिामध्ये चैषां तिष्ठति५ अर्थात् आदित्य वाचक चिरका अर्थ होगा जो सभी प्राणियोंमें अनु शयन करता है तथासमीके बीचमें स्थित है। २५८: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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