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________________ मस्तकका वाचक शिर भी इसी प्रकार बनता है- इदमपीतरच्छिर एतस्मादेव, समाश्रितान्येतदिन्द्रियाणि भवन्ति । अर्थात् मस्तक वाचक शिर पर सभी इन्द्रियां आश्रित रहती है। सभी इन्द्रियों का संचालन केन्द्र मस्तिष्कमें ही होता है। आदित्य वाचक शिरः शब्दके निर्वचनमें शीङ् शयने धातुका योग है तथा मस्तक वाचक शिरः में श्रिञ् सेवायाम् धातुका योग है। मस्तक अर्थ में प्रतिपादित निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे युक्त है। इसे भाषा विज्ञानके अनुसार संगत माना जाएगा। आदित्यके अर्थमें प्रतिपादित निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टिकोण से शिथिल है। अर्थात्मक आधार इसका उपयुक्त है। व्याकरण के अनुसार श्रिञ् सेवायाम् धातुसे असुन७३ प्रत्यय कर शिरः शब्द बनाया जा सकता है। (श्रीयते उष्णीषादिना ) लौकिक संस्कृत में शिरः शब्द प्रधान, समग्र, शिखर तथा मस्तक के अर्थ में प्रयुक्त होता है । ७४ (४५) शूर :- शूर : का अर्थ होता है वीर । निरुक्तके अनुसार शूरः शवते र्गतिकर्मण: ६५ अर्थात् शूरः शब्द गत्यर्थक शु धातु से निष्पन्न होता है । प्रकृत में शूर आदित्यका वाचक है। इस निर्वचनके अनुसार शूरः का अर्थ होगा गतियुक्त। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार उपयुक्त है। शु धातुसे निष्पन्न शवति क्रिया का प्रयोग गमन के अर्थ में कम्बोज देशमें प्रयुक्त होता है। शवति क्रिया में शव् गतौका योग भी माना जा सकता है। लेकिन शूरः शब्दमें शु गतौ धातुका योग है। शव् क्रियासे बना संज्ञा पद आर्य देशोंमें प्रयुक्त होता है।७५ शूरः शब्दका प्रयोग वीरके अर्थ में सर्वत्र होता है। व्याकरणके अनुसार शूर् विक्रान्तौ धातुसे अच्०६ प्रत्यय कर शूरः बनाया जा सकता है। शूरः शब्दको शु धातुसे क्रन् प्रत्यय कर भी बनाया जा सकता है। गमन से युक्त होने के कारण आदित्य के लिए शूरः शब्द का प्रयोग हुआ है। (४६) दिव्या :- इसका अर्थ होता है दिव्य लोकमें उत्पन्न! निरुक्तके अनुसार दिव्या दिविजा:६५ अर्थात् दिन में उत्पन्न होने वाला दिव्या कहलाता है। इसके अनुसार दिव्या शब्द में दिव् + ण्यत् प्रत्ययका योग है। ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे यह निर्वचन उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार दिव् +यतृदिव्यः दिव्याः शब्द बनाया जा सकता है। (४७) अत्या :- इसका अर्थ होता है गमन शील। यह बहुबचन का रूप है। निरुक्तके अनुसार-अत्या अतना : ६५ अर्थात् अत्या शब्दमें अत् सातत्यगमने धातुका योग है।प्रकृतमें हंसके विशेषणके रूपमें अत्या प्रयुक्त हुआ है क्योंकि ये गमनशील होते २५९ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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