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________________ तु= सक्तु। विकसितो भवति५ अर्थात् सक्तु में जल मिलाने पर उसका अधिक विकास होता है। शच् समवाये धातुसे सक्तु मानना ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टि से उपयुक्त है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से प्रथम निर्वचन उपयुक्त है। शेष निर्वचन अर्थात्मक महत्त्व रखते हैं। व्याकरणके अनुसार संज् धातुसे तुन् प्रत्यय कर (किच्च) सक्तु शब्द बनाया जा सकता है। (३९) भद्रम् :- यह कल्याणका वाचक है। निरुक्तमें इसके कई निर्वचन प्राप्त होते हैं। (१) भद्रं भगेन व्याख्यातम्। भजनीयं भूतानामभिद्रवणीयम्६८ अर्थात् भद्रम् शब्दकी व्याख्या भगके ही समान है। भद्र शब्दमें भज् धातुका योग है क्योंकि यह सभी प्राणियों के द्वारा प्रापणीय है। (२) भवद्रमयतीतिवा अर्थात् यह स्वयं होता हुआ सभी को आनन्दित करता है। इसके अनुसार इस शब्द में भू + रम् धातु का योग है। (३) भाजनवद्वा६५ अर्थात् यह सुपात्र युक्त होता है। इसके अनुसार इस शब्द में लान् +वत् का र प्रत्यय भज् +र =भज् भद्र प्राप्त होता है। यास्क के प्रथम निर्वचन में भज् एवं भू + द्रु धातु का संकेत है। द्वितीय में भू + रम् एवं तृतीय में भज् +(वत्) र का संकेत है। उपर्युक्त सभी निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टिसे अपूर्ण है। सबोंका अर्थात्मक महत्व है। यास्क निरुक्तके एकादश अध्यायंके द्वितीय पादमें यजुर्वेद के १९/५० मन्त्र की व्याख्या में भद्र का अर्थ भन्दनीय करते हैं।६९ इस आधार पर भद्र शब्दमें भदि कल्याणे धातुका योग स्पष्ट होता है। यास्ककी यह व्याख्या ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोण से उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार भदि कल्याणे धातु से रम७० प्रत्यय कर इसे निष्पादित किया जा सकता है। (४०) लक्ष्मी :- इसका अर्थ श्री: होता है। निरुक्तमें इसके कई निर्वचन प्राप्त होते हैं :- (१) लक्ष्मीलाभाद्वा अर्थात् लक्ष्मीके आगमनसे लाभ होता है या सभी चीज प्राप्त हो जाती है। लक्ष्मी प्राप्त की जाती है। इसके अनुसार लक्ष्मी : शब्द में लभ प्रापणे धातु का योग है। (२) लक्षणाद्वा६५ अर्थात् यह सबसे लक्षित है, दृश्य है। इसके अनुसार लक्ष्मी: शब्दमें लक्ष् धातु का योग है। (३) लाञ्छनाद्वा अर्थात् वह दृश्य होती है। इसके अनुसार इसमें लांछ् धातु का योग है। (४) लषतेस्यिात् प्रेप्साकर्मणः अर्थात् यह सबों की इच्छाका विषय है या सभी इसे चाहते हैं। इसके अनुसार इस शब्दमें इच्छार्थक लष् धातु का योग है। (५) लग्यतेर्वा स्यादाश्लेष कर्मणः अर्थात् यह सभी को आलिंगन करती है। इसके अनुसार इस शब्द में आश्लेषार्थक लग् धातु का योग है। (६) लज्जतेर्वा २५७ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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