SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ + उः, भृज्ज + उ, भृग् + उ: = भृगुः बनाया जा सकता है।१०७ भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जाएगा। (८१) अंगिरा :- यह एक ऋषिका वाचक है। निरुक्तके अनुसार अंगारेष्वंगिरा६५ अर्थात् अंगार से अंगिरा ऋषि की उत्पत्ति हुई। इस निर्वचनका ऐतिहासिक महत्त्व है। ऐतिहासिक आधार पर यह निर्वचन आधारित है। अंगिरा ऋषिकी उत्पत्तिके इतिहासके आधार पर ही यह निर्वचन किया गया है। ज्वालाकी शान्तिके बाद शेष अंगारे से अंगिरा ऋषिकी उत्पत्ति हुई।१०९ इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। व्याकरण के अनुसार अगि गतौ धातु से इरस् प्रत्यय कर अंगिरस् शब्द बनाया जा सकता है। (अंगति ब्रह्मणोमुखान्निः सरतीति अंगिरा।) उत्पत्ति की दृष्टि से अंगिरस्, का सम्बन्ध अग्नि से माना जा सकता है। पार्थिव अग्नि के उद्भावक अंगिरस् ही थे। काष्ठ मन्थन कर अग्नि प्राप्त करनेमें प्रथम सफलता इन्हें ही प्राप्त हुई। ११० बाद में अंगिरस् गोत्र ही प्रचलित हुआ जिसका सम्बन्ध अग्नि से भी था। ऋग्वेदमें इन्हें पूर्वोअंगिरा : कहकर इनकी प्राचीनता को स्पष्ट किया गया है।११ अंगिरस् ब्रह्माके मानसपुत्र सप्तर्षियों में गिने जाते हैं।११३ (८२) अंगारा :- इसका अर्थ होता है प्रज्वलित, दीप्त खण्ड (जलता कोयला) निरुक्तके अनुसार-अंगारा, अंकना अंचना भवन्ति६५ अर्थात अंगार इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि वे चिह्न छोड़ते हैं या जहां गिरते हैं उसी स्थान को चिह्नित कर देते हैं। या वे चमकीले होते हैं। इसके अनुसार अंगार शब्दमें अकि लक्षणे या अंच् धातु का योग है- अंक् + आरः = अंगारः, अंच् + आरः = अंगारः। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार अगि गतौ धातुसे आरन्११२ प्रत्यय कर अंगार शब्द बनाया. जाता है। (८३) अत्रि :- यह एक ऋषि का नाम है। महर्षि अत्रि की गणना सप्तर्षियों में होती है।११३ निरुक्त के अनुसार- अत्रैव तृतीयमृच्छतेत्यूचुः।६५ अर्थात् यहीं पर तृतीय को भी प्राप्त करो इस प्रकार ऋषियों ने कहा।११४ इस आधार पर अत्रिः शब्द में अत्र + तृतीय (त्रि) का योग स्पष्ट होता है। न त्रयः इति अत्रि:६५ अर्थात् जिनको तीनों नहीं हो अर्थात् जिसको आध्यात्मिक, आधिभौतिक, तथा आधिदैविक ये तीनों प्रकार के दुःख नहीं हो उसे अत्रिः कहते हैं। इसके अनुसार न-अ +त्रि:-अत्रिः है। इस निर्वचन का आधार ऐतिहासिक है। इस निर्वचन का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। व्याकरण २२५ व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy