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________________ (२) वृषाशीलो वा६५ अर्थात् वह वृष के अशील वाला होता है। यहां अशील का अर्थ शीलसे रहित माना जाए तो प्रथम निर्वचन से विरोध प्रतीत होगा। अत: नर्थ सादृश्यमें मानकर इसका अर्थ पशु के स्वभाव वाला मानना उपयुक्त होगा।१०१ वृष + ल: (अशील) = वृषल:। ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोण से दोनों निर्वचन उपयुक्त हैं। गुण साम्यके आधार पर यह निर्वचन किया गया है। इसमें लक्षणाका आधार माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार वृषु सेचने धातुसे कलच्१०२ प्रत्यय कर या दृष् + लु छेदने धातु से ड:१०३ प्रत्यय कर या वृष + ला + क:१०४ प्रत्यय कर वृषलःशब्द बनाया जा सकता है।भाषा विज्ञानके अनुसार इन्हें उपयुक्तमाना जाएगा। (७८) प्रियमेधः :- यह संज्ञा शब्द सामासिक है। निरुक्तके अनुसार प्रिया :अस्य मेधा :६५ अर्थात् जिसको मेधा प्रिय है उसे प्रियमेध : कहा जाएगा। मेध का अर्थ यज्ञ भी होता है इसके आधार पर इसका अर्थ होता है यज्ञप्रिय। इस निर्वचनका अर्थात्मक महत्त्व है। सभी नाम सार्थक हैं इस दिशा में यह उदाहरण देखा जा सकता है। यों तो यास्क ने इस शब्दमें धातु आदिका निर्देश नहीं किया है। (७९) प्रस्कण्व :- यह भी एक संन्नापद है। इसका अर्थ होता है कण्वका पुत्र। निरुक्तके अनुसार-प्रस्कण्व : कण्व प्रभवः' अर्थात् प्रस्कण्व कण्वसे उत्पन्नको कहते हैं। प्रस्कण्व शब्द प्राग्र के सादृश्य पर बना है। जैसे अग्र के पूर्व प्र रखने से प्राग्र = अग्र प्रभव अर्थ हो जाता है उसी प्रकार कण्व से पहले प्र रखने पर प्रस्कण्व का अर्थ होगा कण्व प्रभव। प्रस्कण्द में स् निपातित है। प्रस्कण्व शब्द में वर्णागम माना जाएगा। प्र+कण्व में स् का आगम होकर प्रस्कण्व हो गया है। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार ऋषि अर्थ में (प्र-कण्व) ककार के पूर्व सुट का आगम हो जाता है।१०५ इस प्रकार प्रकण्व ही प्रस्कण्व होजाता है।प्रस्कण्व कण्वसे उत्पन्न ऋषिको ही द्योतित करता है। (८०) भृगु :- भृगु एक ऋषि का नाम है। निरुक्त के अनुसार- अर्चिषि भृगुः सम्वभूव अर्थात् भृगु ऋषि ज्वाला में उत्पन्न हुए। भृज्यमानो न देहे५ अर्थात् जो देह में भुना हुआ न हो। ज्वाला में उत्पन्न होने पर भी इनका शरीर अदग्ध था। ये देह से उत्पन्न नहीं हए। ये दिव्य सृष्टि हैं। यह निर्वचन ऐतिहासिक आधार पर आधारित हैं।१०६ यास्क के निर्वचन से स्पष्ट है कि भृगु शब्दमें भ्रस्ज् पाके धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। कोष ग्रन्थों में भृगुः के शिखर से गिरने वाला प्रपात, ऋषि आदि कई अर्थ १०८ है। व्याकरण के अनुसार भ्रस्ज् पाके धातु से उः प्रत्यय कर प्रस्ज् २२४ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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