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________________ अर्थात् द्वार शब्द गत्यर्थक जु या द्रु धातुसे या निवारणार्थक वारि धातु से बनता है । जुधातुसे जव् तथा द्रुधातु से द्रव् होकर वर्ण विपर्यय आदिके द्वारा यह शब्द बनता है इन दोनों निर्वचनोंका मात्र अर्थात्मक आधार ही उपयुक्त है क्योंकि दोनों गत्यर्थक धातु हैं। फलतः इसका अर्थ होगा जिससे आगमन या प्रत्यागमन होता हो। तृतीय निर्वचनमें निवारणार्थक वारिधातुका योग है इसके अनुसार इसका अर्थ होगा-प्रवेश एवं निर्गम के व्यवधान को रोकने वाला। यास्कने वृ - वार् - द्वारका उपस्थापन वर्णोपजनमें करते हुए निर्वचनको प्रक्रियाका समर्थन किया है। फलतः ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिसे यही अंतिम निर्वचन उपयुक्त माना जायगा। प्रथम दो में तोध्वन्यात्मकताका अभाव स्पष्ट होता है। __ आचार्य काथक्यके अनुसार द्वारका अर्थ यज्ञशाला द्वार है क्योंकि इसी द्वारसे यज्ञ सम्पादनार्थ आगमन प्रत्यागमन होता रहता है या इसी से वहां प्रवेश एवं निर्गम व्यवधान वारित होते हैं। आचार्य शाकपूणि द्वारका अर्थ अग्नि मानते है क्योंकि अग्नि ही हविके जानेका साधन है या देवताओं तक हवि पहुंचानेके लिए अग्निमें ही उसका निक्षेप होता है। वारि धातुके अनुसार यज्ञाग्निसे रोगका निवारण होता है। काथक्य एवं शाकपूणिके अनुसार द्वारके अर्थमें संकोच पाया जाता है। इनलोगोंने प्रकरणके अनुसार अर्थ किया है। वैदिक कालमें भी द्वार सामान्य द्वारका वाचक था, इन्हीं निर्वचनोंसे स्पष्ट हो जाता है। व्याकरणके अनुसार इसे वृधातु+घञ् प्रत्यय कर-द्वर-द्वारः बनाया जा सकता है वृधातुसे संभवतः यास्कका परिचय नहीं होगा अन्यथा दृधातु वैदिक धातु कोषमें उपलब्ध होता है। अंग्रेजीका क्ववत शब्द इसीका क्रमिक विकास है। ग्रीक भाषा में द्वारके लिए जनतं का प्रयोग होता है। (29) भरूजा :- इसका अर्थ होता है भूजा। यह भ्रस्ज् पाके धातुसे बनता है। क्योंकि वह पकाया हुआ (भूना हुआ) होता है । भ्रस्ज् धातु के भ्र्स ज में भ वर्ण के बाद अका आगम एवं र के बाद ऊ का आगम होकर भरूजका ही स्त्रीलिंग रूप भरूजा है। यह निर्वचन सिद्धान्तके अनुकूल है। अतः इसे भाषावैज्ञानिक दृष्टिसे उपयुक्त माना जायगा । व्याकरण के अनुसार भ्रस्ज् पाके धातुसे अङ्प्रत्यय+ टाप् कर भरूजा शब्द बनाया जायगा । यहां भी भ् के बाद अ एवं र् के बाद ऊ का आगम होता है। भरूजासे बना भूजा शब्दका १५१ व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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