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कातन्त्रव्याकरणम् १३७१. लुभो विमोहने [४।६।८६] [सूत्रार्थ
क्त्वा प्रत्यय के परे रहते विमोहनार्थक लुभ् धातु से इट् का आगम होता है।।१३७१।
[दु० वृ०]
विमोहने लुभे: क्वाड् भवति। लुभित्वा। गाये तु लुभिन्वा . लुब्ध्वा ।। १३ ७१।
[वि०प०]
लुभो०। गाये विति। वेषुसहेत्यादिना विकल्प एव। यद्यपि 'लुभ गायें' (३।७३) पठ्यते, तथाप्यनेकार्थत्वाद् विमोहनेऽपि वर्तते। विमोहनमाकुलीकरणम्। लुभित्वा। अनाकुलम् आकुलीकृत्येत्यर्थः। तथा उत्तरत्रापि। 'विलुभिताः केशा:' इति। अनाकुला आकुलीकृता इत्यर्थः ।। १३७१।
[क० त०]
लु०। यद्यपीत्यादि। एतेन 'लुभो विमोहने' (४।६।८६) इति तुदादौ पाठो नास्तीति।।१३७१।
[समीक्षा 'लभित्वा' प्रयोग के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में इडागम किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- “लुभो विमोहने' (अ०७।२।५४)। अत: उभयत्र साम्य ही है।
[रूपसिद्धि]
१. लुभित्वा। लुभ्-इट्+क्त्वा+सि। 'लुभ विमोहने' (५।२९) धातु से क्त्वा प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से इडागम तथा विभक्तिकार्य।।१३७१।
१३७२. क्षुधिवसोश्च [४।६।८७] [सूत्रार्थ क्त्वा प्रत्यय के परे रहते 'क्षुध-वस्' धातुओं से इडागम होता है।।१३७२। [दु० वृ०]
चकारेण लुभो विमोहने इत्यनुकृष्यते उत्तरार्थम्। क्षुधिवसोश्च क्वीड् भवति। क्षुधित्वा, उषित्वा। प्रतिषेधबाधकमिदम्।।१३७२।
[दु० टी०]
क्षुधि०। राधिरुघीत्यादिना वसतिघसेः साद् इत्यनेन च प्रतिषेधे प्राप्ते वस्ते: पुनरिडस्त्येव। व्यञ्जनादेर्युपधस्यावो वेति पक्षे गुण:- क्षोधित्वा। उषित्वेति वसतेर्यण्वद्भावात् सम्प्रसारणम्।।१३७२।