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कातन्त्रव्याकरणम्
१३५५. विष्वग्देवयोश्चान्त्यस्वरादेरव्यञ्चतौ क्वौ [४।६।७०]
[सूत्रार्थ
क्विप्-प्रत्ययान्त अन्च धान के परे रहते सर्वनामसंज्ञक शब्द, विश्वक तथा देव शब्द में अन्तिम स्वर से लेकर अग्रिम अवयव के स्थान में 'अद्रि' आदेश होता है।।१३५५।
[दु०वृ०]
विष्वगदेवयोः सर्वनाम्नश्चान्त्यम्वगदग्वयवस्याञ्चतो स्विबन्ते पर दिगदेशो भवति। विष्वगञ्चतीति विष्वव्यङ्। देवव्यङ्। सर्वव्यङ्, यव्यङ्, अदत्र्य. अमूव्यङ्।।१३५५।
[क० त०] विष्वक। मूर्धन्यमध्योऽयं विष्वक्शब्दः।। १३५५। [समीक्षा
'विचव्यङ्' इत्यादि शब्दों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में ‘अद्रि' आदेश किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- "विष्वग्देवयोश्च टेरव्यञ्चतो वप्रत्यये" (अ०६।३।९२)। इस प्रकार उभयत्र समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१-७. विष्वव्यङ्। विष्वक् - अन्च्-क्विप्-सि। विष्वगञ्चति। देवव्यङ्। देव-अन्च् -क्विप-सि। देवान् अञ्चति। सर्वव्यङ। सर्व-अन्च- स्विप्- सि। सर्वांनञ्चति। यव्यङ्। यद्-अन्च-क्विप्-सि। तव्यङ्। तद्-अन्च-क्विप्-सि। अदव्यङ्। अदस्- अन्च -क्विप् -सि। अमुव्यङ्। अदम् अन्च्-क्विप्- सि। क्रमश: अक्-अ-अद्-अम् के स्थान में प्रकृत सूत्र से 'अद्रि' आदेश तथा विभक्तिकार्य।।१३५५ |
१३५६. सहसन्तिरसां सध्रिसमितिरयः [४।६।७१] [सूत्रार्थ]
क्विप्-प्रत्ययान्त ‘अन्च्' धातु के परे रहते सह को 'सध्रि'. सम् को ‘समि' तथा तिरस को 'तिरि' आदेश होता है।। १३५६।
[दु०वृ०]
एषां सध्रि-समि-तिरीत्यते आदेशा भवन्ति यथासङ्ख्यम् अञ्चतौ क्विबन्ते परे। सहाञ्चाति सध्यङ्, समञ्चति सम्यङ, तिरोऽञ्चतोति तिर्यङ्।। १३५६।
[क० त०]
सह०। सध्रिसमितिग्य इति सविभक्तिकत्वेऽपि अस्वरता न स्यात्। 'तिर्यङ् तिरश्चि:'' (२।२।५ ० ) इत्यत्र तिर्यनिर्देशात्।।१३५६।