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कातन्त्रव्याकरणम् १३५२. किम् की [४।६।६७] [सूत्रार्थ 'दृक्-दृश-दृक्ष' के परे रहते 'किम्' शब्द को 'की' आदेश होता है।। १३५२। [दु०वृ०]
किम् दृगादिषु कीर्भवति। कीदृक्, कीदृशः, कीदृक्षः। इदं किं परिमाणमस्य इयान्, कियान्। डियन्तुः सद्यआद्यत्वात्।।१३५२।
[क० त०] किम्। इदं किमित्यादि। परिमाणे वन्तुः।।१३५२। [समीक्षा] 4 .
'कीदृशः' इत्यादि शब्दों की सिद्धि के लिए उभयत्र 'किम्' को 'की' आदेश किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- "इदंकिमोरीशकी'' (अ० ६।३।९०)। इस प्रकार उभयत्र समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१-३. कीदृक्। किम्-की-दृश्-क्विप्-सि। कीदृशः। किम्-की-दृश्-टक्-सि। कीदृक्षः। किम्-की-दृश्-सक्-सि। सर्वत्र 'किम्' को 'की' आदेश तथा विभक्तिकार्य।। १३५२।
१३५३. अदोऽमूः [४।६।६८] [सूत्रार्थ] 'दृक्-दृश-दृक्ष' के परे रहते ‘अदस्' शब्द को 'अमू' आदेश होता है।।१३५३। [दु० वृ०]
अदसोऽमूर्भवति दृगादिषु। अमूदृक्, अमूदृशः, अमूदृक्षः। केचिद् ‘अमूकादृक्, अमूकादृशः, अमूकादृक्षः' इति, तदा यत्न एव।।१३५३।
[वि०प०]
अदो०। केचिदिति। अग्युक्तस्य न भवति। "आ सर्वनाम्नः' (४।६।६९) इत्याकार एव भवति, दस्य मकार: कार्य इति उत्त्वं माद् इत्यस्त्येव। यत्न एवेति। अभिधानादत्र न भवतीति। अन्ये तु 'आगमा यद्गुणीभूतास्ते तद्ग्रहणेन गृह्मन्ते' (का० परि० १४) इति साकोऽपि स्यादिति यतार्थं मन्यते।।१३५३।
[क०त०] अदो०। केचिदिति तन्मते साको न स्यात्।।१३५३। [समीक्षा]
'अमूदृश:' आदि शब्दों के सिद्ध्यर्थ कातन्त्रकार ने 'अदस्' शब्द को 'अमू' आदेश करके लाघव या सरलता उपस्थित की है, जबकि पाणिनि एतदर्थ "अदसोऽसेर्दादु दो म:' (अ० ८।२।८०) से उत्त्व-मत्त्व का विधान करते हैं। इस प्रकार पाणिनीय निर्देश में गौरव तथा कातन्त्रीय निर्देश में लाघव स्पष्ट है।