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________________ चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये षष्ठः क्त्वादिपादः ५७५ वि०प०] भाव०। ईषदाढ्यम्भवमिति। “कर्तृकर्मणोश्च भूकृञोः' (४।५।१०३) इति भावे खल्। न विद्यते कर्म येषां प्रयोगे ते अकर्मकाः। तविपरीताश्च सकर्मका इत्यर्थो न्यायसिद्धः। विषयनियममाह- अर्थादित्यादि। सकर्मकेभ्योऽप्यविवक्षितकर्मत्वाद् भावे- कर्तव्यं देवदत्तेन, कृतं देवदत्तेनेति। कथन्तर्हि गतं ग्रामं देवदत्तेनेति, सकर्मकत्वाद् भावे? सत्यम्, अकर्मकविवक्षयैव केवलं भावेऽपि धात्वर्थकृता व्याप्तिरस्तीति ग्राममिति द्वितीया। यथा कटं कृत्वा घटं कर्तुं गतः इति। आख्याते सकर्मकाद् भावे नाभिधीयते। यथा ग्रामो गम्यते देवदत्तेनेति।।१३३२। [क० त०] भाव०। भावस्यैकत्वादिति टीकायां भविष्यति। यद्यपि कर्तृभेदेन शयनव्यक्तिभेदस्तथापि जातेरेकत्वादेकवचनम्, व्यक्तौ तु द्विवचनादिकं भवत्येवेति भावः। सकर्मकेभ्योऽपीत्यादि। विशेषकर्मविवक्षायां कृतं कार्यं न निवर्तते इति भावप्रत्ययस्थित एवेति।।१३३२। [समीक्षा] कृत्यसंज्ञक प्रत्यय, क्त-प्रत्यय तथा खलर्थक प्रत्ययों का विधान दोनों ही आचार्यों ने भाव-कर्म अर्थों में किया है। पाणिनि का सूत्र है- “तयोरेव कृत्यक्तखलाः ' (अ०३।४।७०)। इस प्रकार उभयत्र पूर्ण समानता ही है। [विशेष वचन] १. सकर्मकेभ्योऽपि कर्माविवक्षायां भावे (दु० टी०)। [रूपसिद्धि] १-८. शयितव्यं भवता। शी+तव्य-सि। भोक्तव्य ओदनो भवता। भज +तव्य+सि। आसितं भवता। आस्+क्त+सि। कृतः कटो भवता। कृ+क्त+सि। ईषदाढ्यम्भवं भवता। ईषदाढ्य+भू+खल+सि। ईषत्करः कटो भवता। ईषत्+कृ+खल्+सि। ईषत्पानं भवता। ईषत् +पा+यु-अन+सि। ईषत्पानः सोमो भवता। ईषत्+पा+ यु-अन+सि। गुण, इडागम आदि कार्य प्राप्ति के अनुसार होते हैं। ‘खल' प्रत्यय के अर्थ में 'यु' प्रत्यय भी होता हैं, अत: ‘पानम्, पान:' उदाहरण यहाँ दिए गए हैं।।१३३२। १३३३. आदिकर्मणि क्तः कर्तरि च [४।६।४८] [सूत्रार्थ भूतकालिक आदि क्रियाक्षण में जो 'क्त' प्रत्यय विहित है, वह कर्ता अर्थ में होता है। सम्भव होने पर कर्म अर्थ में भी इसका विधान साधु माना जाता है।। १३३३।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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