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चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये षष्ठः क्त्वादिपादः [वि०प०] कर्म०। सुवर्णनिधायमिति। दधातेरायिरादेशः।। १३१४। [क० त०]
कर्म०। ऊचे कर्तृकर्मवाचिन्युपपदे शुषेः पूरेश्च णमिति नायं सूत्रार्थः। कर्तर्युपमानवाचिनि पूर्वेणैव सिद्धत्वाच्चकार इह व्यर्थ: स्यात्। नापि शुषिपूरी वर्तेयातामिति देश्यम्, शुषेरकर्मकत्वात्, ओदनपाचं पक्व इति। नु कर्तरि कर्मणि चोपपदे तत्रोदाहरणद्वयम्, तत् कथमिदम्? सत्यम्, यथा पचधातुर्विक्लित्तिमात्रार्थस्तदा कर्तरि। यदा विक्लेदनार्थस्तदा कर्मणीति विशेषप्रतिपत्त्यर्थमेकस्यैव धातोर्दर्शनम्।।१३१४॥
[समीक्षा]
'चूडकनाशम्, सुवर्णनिधायम्' इत्यादि शब्दरूपों के साधनार्थ कातन्त्रकार ने ‘णम् ' तथा पाणिनि ने ‘णमुल्' प्रत्यय किया है। पाणिनि का सूत्र है- “उपमाने कर्मणि च' (अ० ३।४।४५)। इस प्रकार अनुबन्धभेद को छोड़कर अन्य प्रकार की तो उभयत्र समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१. चूडकनाशं नष्टः। चूडक+णश्+णम्+सि। चूडक इव नष्टः। 'चूडक' शब्द के उपपद में रहने पर ‘णश अदर्शने' (३।४१) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा ‘णम्' प्रत्यय, उपधादीर्घ तथा विभक्तिकार्य।
२. सुवर्णनिधायं निहितम्। सुवर्ण+नि+धा+णम्+सि। सुवर्णमिव निहितम्। 'सुवर्ण-नि' के उपपद में रहने पर 'डु धाञ् धारणपोषणयोः' (२।८५) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा णम् प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत्।।१३१४।
१३१५. कषादिषु तैरेवानुप्रयोगः [४।६।३०] [सूत्रार्थ
कषादि धातुओं के अन्तर्गत जिस धातु से उत्तर में णम् प्रत्यय होता है. उसी धात् का अनुप्रयोग भी होता है, अन्य धातु का नहीं।।१३१५।
[दु०वृ०]
कषादिषु णमो विषयभूतेषु तैरेव कषादिभिरनुप्रयोगः कर्तव्यो नान्यैरिति। अनुप्रयोगश्च पूर्वकालतामभिदधात्येव। निमूलकाषं कषति। निमूलं कषतीत्यर्थः। कषादिष्विति किम्? चेलको वृष्टो देवः।।१३१५।
[वि०प०]
कषा०। तुसम्बन्धे प्रत्ययानां विधानादनुप्रयोगः सिद्ध एव, किन्तु धात्वन्तरेणापि स्यादिति वचनमुच्यते। अनुप्रयोगश्चेत्युक्तसमुच्चये चकारः।